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केश-केशवचन्द्रसेन
पुनरुन्मेष होता है। इसके आचार्य दो प्रकार के हुए : गृहस्थ तथा संन्यासी । इन आचार्यों में केशव काश्मीरी का नाम सर्वप्रमुख रूप से आता है। पुनर्विकासकाल के आरम्भिक नेताओं का युग्म केशव काश्मीरी ( निम्बार्को में अग्रणी) तथा उनके भगिनीपति हरिव्यास देव (निम्बार्कों के अन्य नेता) का था । ये कृष्णचैतन्य एवं वल्लभाचार्य के समकालीन थे। केशव काश्मीरी प्रसिद्ध तार्किक विद्वान् एवं निम्बार्कदर्शन के भाष्यकार थे । उपासना के क्षेत्र में उनकी 'क्रमदीपिका' की विशेष प्रतिष्ठा है जो विशेषकर गौतमीय तन्त्र के आधार पर निर्मित
'भक्त' भी कहते हैं। केवल का हृदय पवित्र होता है। केवल आराध्य में ही तल्लीन रहता है और भक्ति के साथ मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष और प्रकृति के पार्थक्य की स्थिति 'कैवल्य' कहलाती है । इस स्थिति में रहनेवाला मुक्त आत्मा 'केवल' कहलाता है। जैन धर्म में जिसे शुद्ध (केवल) ज्ञान प्राप्त हो गया हो, ऐसे जिन विशेष को 'केवली' कहा जाता है।
हठयोगदोपिका (२.७१) के अनुसार 'केवल' कुम्भक का एक भेद है : प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्तो रेच-पूरक-कुम्भकैः । सहितः केवलश्चेति कुम्भको द्विविधो मतः ।। [प्राणायाम तीन प्रकार का कहा गया है : रेचक, पूरक और कुम्भक । कुम्भक भी दो प्रकार का माना गया है: सहित और केवल । ] केश-धार्मिक आज्ञानुसार सिक्खों के धारण करने के पाँच उपादानों में पहला केश है। ये कभी कटाये नहीं जाते । पाँच उपादान पाँच 'ककार' (क वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्द) कहलाते हैं : केश, कृपाण, कड़ा, कच्छ और कंधा । पूर्ण केश रखने की प्रथा को दशम गुरु गोविन्दसिंह ने प्रारम्भ किया था। खालसा सिक्खों का यह प्रमुख चिह्न है, जो नानकपंथियों से उनको पथक करता है। केशव-विष्णु का एक नाम । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : ‘क (जल) में जो सोता है ( के जले शेते इति)। भागवत पुराण के अनुसार परब्रह्मशक्ति को ही केशव कहा गया है : 'ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-संज्ञाः शक्तयः केशसंज्ञिताः ।' सुन्दर लम्बे केश (बाल) रखने के कारण भी विष्ण को केशव कहते हैं । अथवा क ब्रह्मा, ईश रुद्र इन दोनों को अपने स्वरूप में लीन कर जो परमात्मा रूप से एक मात्र अवस्थित रहता है वह 'केशव' है। रिवंश- पुराण (८०.६६) के अनुसार केशी नामक असुर का वध करने के कारण विष्णु का नाम केशव पड़ा (केशं केशिनं वाति हन्ति इति):
यस्मात्त्वया हतः केशी तस्मान्मच्छाशनं शृणु ।
केशवो नाम नाम्ना त्वं ख्यातो लोके भविष्यसि ॥ केशव काश्मीरी-निम्बार्कों का इतिहास १३५० ई० से १५०० ई० तक अज्ञात है। किन्तु १५०० से इसका
केशवचन्द्र सेन-भारतीय पुनर्जागरण के आन्दोलन में 'ब्रह्मसमाज' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह आन्दोलन १८२८ ई० में राजा राममोहन राय द्वारा आरम्भ हुआ। आन्दोलन का प्रथम चरण १८४१ में समाप्त हुआ। दूसरे चरण के नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा उनके एक नवयुवक सहयोगी केशवचन्द्र सेन थे। दूसरे चरण में समाज काफी प्रगति पर था एवं केशव के सहयोग ने इसे और भी गति दी। ये सम्भ्रान्त वैद्यकुल के व्यक्ति थे तथा इन्होंने आधुनिक उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। १८५७ ई० में समाज को सदस्यता ग्रहण कर १८५९ से इन्होंने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा समाजोन्नति में लगाना आरम्भ किया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर इन्हें बहुत पसन्द करते थे। पाँच वर्ष तक दोनों ने साथ-साथ कार्य किया। इसी समय 'ब्राह्म विद्यालय' खोला गया जिसमें केशवचन्द्र ने अंग्रेजी में तथा देवेन्द्रनाथ ने मातृभाषा में अपने सिद्धान्तों को समझाया। इसके फलस्वरूप अनेक नवयुवक समाज में सम्मिलित हुए। इस बीच केशव ने 'बैंक आफ बंगाल' में नौकरी कर ली किन्तु उसे उन्होंने १८६१ में त्याग दिया तथा अपना संपूर्ण समय समाज के लिए देने लगे। 'संगति सभा' के अनेक अनुयायियों ने केशव का अनुगमन किया, जिनमें प्रतापचन्द्र मजुमदार प्रधान थे । एक पत्रिका "इण्डियन मिरर" निकाली जाने लगी।
१८६२ ई० में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को नया सम्मान दिया। समाज के आचार्य केवल ब्राह्मण हुआ करते थे। देवेन्द्रनाथ स्वयं रामाज के आचार्य थे एवं
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