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कृष्णकर्णामृत - कृष्णचेतन्य
भी थे। इसीलिए इनको योगेश्वर एवं जगद्गुरु (कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ) की उपाधि मिली। इनकी सहायता से पाण्डव विजयी हुए और युधिष्ठिर ( पाण्डवों में श्रेष्ठ ) की अध्यक्षता में पाण्डवराज्य की स्थापना हुई । कृष्ण इसके पश्चात् द्वारका लौट आये । गृहयुद्ध से उनके यदुवंश का विध्वंस हुआ जंगल में एक व्याथ के बाण से स्वयं उनका भी निधन हुआ ।
कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रभावशाली था। वे राजनीति के बहुत बड़े ज्ञाता और दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित थे । धार्मिक जगत् में भी वे नेता और प्रवर्तक थे । उन्होंने समुच्चयवादी (ज्ञान-कर्म-भक्तिसमन्वयी) भागवत धर्म का प्रवर्तन किया । अपनी योग्यताओं के कारण वास्तव में वे युगपुरुष थे, जो आगे चल कर युगावतार के रूप में स्वीकार किये गये ।
पुराणों में कृष्ण का वर्णन ईश्वर के पूर्णावतार के रूप में है। पूर्णावतार का साङ्गोपाङ्ग रूपक भागवत पुराण में पाया जाता है। दुष्टों का अत्याचार, अवतार का उद्देश्य, कारागार में जन्म, योगमाया का जन्म, गोचारण, गोप तथा गोपियाँ, उनका अनन्य प्रेम, दुष्टदलन, कंसवध, रास, वेदान्त शिक्षण आदि का विस्तृत वर्णन और निरूपण इस पुराण तथा अन्य पुराणों में उपलब्ध है । हरिवंश ( महाभारत के परिशिष्ट) में कृष्ण की कथा दुबारा कही गयी है ।
कृष्ण ने जिस भागवत धर्म का प्रवर्तन किया था, आगे चलकर उसमें वे स्वयं उपास्य मान लिये गये । दर्शन में इतिहास का उदात्तीकरण हुआ और कृष्ण के ईश्वरत्व और ब्रह्मपद की प्रतिष्ठा हुई। भागवत-वैष्णव धर्म आज भारत का बहुमानित और प्रतिष्ठित धर्म है। भारत में इसके सम्प्रदायों तथा उपसम्प्रदायों का व्यापक प्रचार हुआ है । दे० 'अवतार' । कृष्णकर्णामृत विष्णु स्वामी मत के अनुयायी बिल्वमङ्गल द्वारा रचित एक संस्कृत काव्य, जिसके विषय राधा तथा कृष्ण हैं । कानों में अमृत सींचने के समान यह बड़ी मधुर श्रव्य रचना है ।
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कृष्ण चतुर्दशी (शिवरात्रि ) - (१) फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिव इसके देवता हैं । भगवान् शिव के चौदह नामों के जप का विधान है । चौदह वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए।
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( २ ) केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए। शिव इसके देवता हैं । एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए ।
(३) माघ मास के कृष्ण भगवान् शिव की बिल्वपत्रों से
विविध चरितों कृष्ण पूर्णावतार
दिन भगवान् शङ्कर की प्रतिमा के सम्मुख गुग्गुल जलाना चाहिए । कृष्णचरित - वैष्णव पुराणों में कृष्ण के का वर्णन कई दृष्टियों से हुआ है। अथवा षोडशकला - अवतार माने गये हैं । अतः इनके जीवन में विविधता और जीवन के सभी वैषम्य समन्वित हैं। कृष्ण का वाह्यतः विरोधात्मक चरित्र बहुतों को भ्रम में डाल देता है । परन्तु इसके मूल में समन्वयात्मक एकता वर्तमान है । अतः इनके भक्तों के लिए वैषम्य प्रतीयमान है; वास्तविक नहीं कृष्ण के पूर्णावतार में समग्र जीवन का चित्रण है । भागवत और महाभारत में कृष्णचरित का पूरा विकास पाया जाता है। कृष्ण चैतन्य सोलहवीं शती के प्रारम्भ में दो नये सम्प्र दाय चैतन्य एवं वल्लभ उत्पन्न हुए । इनमें चैतन्य का मत प्रथम है तथा इसकी शिक्षाएँ तथा अन्य धार्मिक विधियाँ पूर्व के अन्य सम्प्रदायों के समीप हैं ।
कृष्ण चैतन्य का बालनाम विश्वम्भर था। ये बङ्गाल के नदिया ( नवद्वीप ) नामक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र में उत्पन्न हुए थे । बचपन में ही ये तर्क एवं व्याकरण के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध हो गये । १५०७ ई० में ईश्वर पुरी ( माध्व संन्यासी ) से प्रभावित होकर भागवत पुराण में वर्णित भक्ति को इन्होंने अपने जीवन में गम्भीरता से ग्रहण किया। इसके पश्चात् इन्होंने अपना उपदेश आरम्भ किया तथा इनके अनेक शिष्य हो गये, जिनमें अद्वैताचार्य ( एक वृद्ध एवं सम्माननीय वैष्णव विद्वान् ) एवं नित्यानन्द ( जो बहुत दिन तक माध्व थे ) उल्लेखनीय हैं । इसी समय इन पर निम्बार्की एवं विष्णुस्वामियों का बड़ा प्रभाव पड़ा तथा ये जयदेव, चण्डीदास एवं विद्यापति के गीतों में आनन्द लेने लगे । इस प्रकार इन्होंने अपने माध्व शिक्षक से विलग होकर राधा को अपने विचार एवं आराधना में प्रधानता दी। ये अधिकांश समय शिष्यों के साथ मिलकर राधा-कृष्ण की
पक्ष की चतुर्दशी को पूजा करनी चाहिए । इस
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