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कृष्णजन्मखण्ड-कृष्णदास अधिकारी
स्तुतियाँ ( संकीर्तन ) गाने में व्यतीत करने लगे । प्रायः कहा जाता है । बंगला भाषा में चैतन्य के ऊपर बहुत बड़ा ये शिष्यों को लेकर नगर कीर्तन किया करते । ये नये साहित्य विकसित हुआ है, जो जनता में बहुत लोकमार्ग आगे चलकर बड़े ही लोकप्रिय सिद्ध हुए ।
प्रिय है।
कृष्णजन्मखण्ड-ब्रह्मवैवर्तपुराण का एक अंश । एक स्व१५०९ ई० में इन्होंने केशव भारती से संन्यास की दीक्षा ली एवं 'कृष्ण चैतन्य' नाम धारण किया। फिर
तन्त्र ग्रन्थ के रूप में वैष्णवों में इसका बहुत आदर है । उड़ीसा में जगन्नाथमन्दिर, पुरी, चले गये। कुछ वर्षों
निम्बार्क सम्प्रदाय का यह प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।
कृष्णजयन्ती-देवताओं के जन्मोत्सव उनकी अवतरण तक अपना सम्पूर्ण समय उत्तर तथा दक्षिण भारत की
की तिथियों पर मनाये जाते हैं। इनमें रामजयन्ती, यात्रा में बिताया। वृन्दावन इनको बहुत प्रिय था, जो
कृष्णजयन्ती एवं विनायकजयन्ती ( गणेशचतुर्थी ) विशेष राधा की रासभूमि थी। ये इस समय नवद्वीपवासियों
प्रसिद्ध हैं। कृष्णजयन्ती विष्णु के अवतार के रूप में द्वारा कृष्ण के अवतार माने जाने लगे तथा इनका सम्प्र
मनायी जाती है। कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी दाय प्रसिद्ध हो गया। १५१६ ई० से ये पुरी में रहने लगे।
को हुआ था। इस दिन भगवान् की मूर्ति को सजाते हैं, यहाँ पर इनके कई शिष्य हुए। इनमें सार्वभौम, प्रताप
झूले पर झुलाते हैं, संकीर्तन व भजन करते एवं व्रत रुद्र ( उड़ीसा के राजा ) तथा रामानन्द राय ( प्रताप
रखते हैं तथा जन्मकाल (१२ बजे रात ) व्यतीत हो रुद्र के मन्त्री) प्रसिद्ध हैं। दो बड़े विद्वान् शिष्य इनके
जाने पर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस समय भागवत और हुए जिन्होंने आगे चलकर चैतन्य सम्प्रदाय के
पुराण का पाठ किया जाता है, जिसमें भगवान् कृष्ण की धार्मिक नियमों एवं दर्शनों के स्थापनार्थ ग्रन्थों की रचना
जन्मकथा वणित है। की। ये थे रूप एवं सनातन । और भी दूसरे शिष्यों ने
___ अर्ध रात्रि में अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र होने राधा-कृष्ण तथा चैतन्य की प्रशंसा में गीत लिखे। इनमें
पर यह पर्व कृष्णजयन्ती कहा जाता है, इस योग में से नरहरि सरकार, वासुदेव घोष एवं वंशीवादन
कुछ हेरफेर होने पर इसको कृष्णजन्माष्टमी कहते हैं। प्रमुख थे।
कष्णदास कविराज-चैतन्य साहित्यमाला में अति प्रख्यात चैतन्य न तो व्यवस्थापक थे और न लेखक । इनके ग्रन्थ 'चैतन्यचरितामृत' की रचना कृष्णदास कविराज सम्प्रदाय की व्यवस्था का कार्य सँभाला नित्यानन्द ने ने वृन्दावन के समीप राधाकुण्ड में सात वर्ष के अनवरत तथा धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों की स्थापना की परिश्रम से १५८२ ई० में पूरी की थी। इसमें सम्प्रदाय के रूप एवं सनातन ने। इनका कुछ नया सिद्धान्त नहीं नेता कृष्णचैतन्य का सम्पूर्ण जीवन बड़ी अच्छी शैली में था। किन्तु सम्भवतः चैतन्य ने ही मध्व के द्वैत की वणित है। दिनेशचन्द्र सेन के शब्दों में 'बँगला भाषा में अपेक्षा निम्बार्क के भेदाभेद को अपने सम्प्रदाय का दर्शन रचित यह ग्रन्थ चैतन्य तथा उनके अनुयायियों की माना। इनके आधार ग्रन्थ थे भागवत पुराण ( श्रीधरी शिक्षाओं को प्रस्तुत करनेवाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है।' व्याख्या सहित ), चण्डीदास, जयदेव एवं विद्यापति के कृष्णदास (माध्व)-सोलहवीं शती के एक वैष्णव आचार्य । गीत, ब्रह्मसंहिता तथा कृष्णकर्णामृत काव्य । लोगों पर इन्होंने कन्नड भाषा में पद्यात्मक रचना की है, जिसका इनके प्रभाव का मुख्य कारण था धार्मिक अनुभव, प्रभाव- विषय माध्वसम्प्रदाय तथा दर्शन है। शाली भावावेश (जब ये कृष्ण की मूर्ति की ओर देखते तथा कृष्णदास अधिकारी-वल्लभाचार्य के अष्टछाप साहित्यउनके प्रेम पर भाषण करते थे) तथा कृष्णभक्ति की निर्माताओं में से एक भक्त कवि । इनका जन्म गुजरात के संस्पर्शयुक्त एवं हार्दिक प्रशंसा की नयी प्रणाली। राधा- पाटीदार वंश में सोलहवीं शती के मध्य हुआ था। कृष्ण की कथा को ही इन्होंने अपनी आराधना का बल्लभाचार्य के प्रभावशाली पुत्र गुसाँई विट्ठलनाथजी माध्यम बनाया, क्योंकि इनका कहना था कि हमारे पास का संरक्षण और श्रीनाथजी की पूजा-अर्चा का प्रबन्धभार मनुष्यों का सबसे अधिक हृदय स्पर्श करने वाली कोई कुछ वर्ष इनके अधीन था। सम्प्रदायसेवा के साथ ही ये और गाथा नहीं है । इनका मत 'गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय' भक्तिपूर्ण पदरचना भी करते थे। उत्सवों के समय इन
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