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कुबेर-कुशीनगर
सारासारवचः प्रपञ्चनविधी मेधातिथेश्चातूरी
कुशकाशास्त एवासन् शश्वद् हरितवर्चसः । स्तोकं वस्तु निगूढमल्पवचनाद् गोविन्दराजो जगौ । ऋषयो वै पराभाव्य यज्ञघ्नान यज्ञमीजिरे ।। ग्रन्थेऽस्मिन्धरणीधरस्य बहुशः स्वातन्त्र्यमेतावता
[ सब संपत्तियों से भरपूर बहिष्मती नगरी में पहले स्पष्टं मानवधर्मतत्त्वमखिलं वक्तं कृतोऽयं श्रमः ॥ यज्ञस्वरूपी वराह भगवान् के शरीरकम्पन से जो रोम
[ मेधातिथि की चातुरी सारगर्भित तथा सारहीन गिरे, वे ही हरे-भरे कुश और कास हो गये। ऋषियों ने वचनों ( पाठों ) के विवेचन की शैली में दिखाई पड़ती उनको हाथ में धारण कर यज्ञविरोधियों को मार भगाया है। गोविन्दराज ने शास्त्रों के गूढ़ अर्थों की व्याख्या और अपना अनुष्ठान पूरा किया। (भागवत)] संक्षेप में की है। धरणीधर ने परम्परा से स्वतन्त्र होकर कुश (राजा)—सूर्यवंशी भगवान् राम के ज्येष्ठ पुत्र । रामाशास्त्रों का अर्थ किया है । ( परन्तु मैंने 'मन्वर्थमुक्तावली' यण में इनकी उत्पत्ति का वर्णन मिलता है कि सीताजी के में ) मानव धर्म ( शास्त्र ) के सम्पूर्ण तत्व को स्पष्ट बड़े पुत्र का मार्जन ऋषि ने पवित्र कुशों से किया था रूप से कहने का श्रम किया है।
इसलिए उसका नाम कुश हो गया। सर विलियम जोन्स ने कुल्लक भट्ट की प्रशंसा में लिखा
कुश (द्वीप)--पौराणिक भुवनकोश ( भूगोल ) के अनुसार है : “इन्होंने कष्टसाध्य अध्ययन कर बहुत सी पाण्डुलि
सात द्वीपों में एक कुश द्वीप भी है । यह घृत के समुद्र से पियों की तुलना से ऐसा ग्रन्थ प्रस्तुत किया, जिसके
घिरा हुआ है जहाँ देवनिर्मित अग्नि के समान कुशस्तम्ब विषय में सचमुच कहा जा सकता है कि यह लघुतम
वर्तमान हैं। इसीलिए इसका नाम 'कुश' पड़ा। इसके किन्तु अधिकतम व्यञ्जक, न्यूनतम दिखाऊ किन्तु पाण्डि
राजा प्रियव्रत के पुत्र हिरण्यरेता थे। इन्होंने इस द्वीप को त्यपूर्ण, गम्भीरतम किन्तु अत्यन्त ग्राह्य है। प्राचीन
सात भागों में विभक्त कर अपने सात पत्रों को दे दिया। अथवा नवीन किसी लेखक की ऐसी सुन्दर टीका दुर्लभ
कुशकण्डिका-होम कर्म में कुश बिछाने तथा वस्तु शुद्ध है।" दे० पेद्दा रमप्पा बनाम बंगरी शेषम्मा, इण्डियन
करने की विधि का ज्ञापक लम्बा गद्यमन्त्रा । इसके अनुला रिपोर्टर (२, मद्रास, २८६, पृ० २९१ )।
सार कुशों के द्वारा सभी प्रकार के होम के लिए सम्पादित कुबेर-उत्तर दिशा के अधिष्ठाता देवता। मार्कण्डेय तथा
अग्निसंस्कार की क्रिया को भी कुशकण्डिका कहते हैं। वायुपुराण में 'कुबेर' शब्द की व्युत्पत्ति निम्नलिखित प्रकार से दी हुई है :
कर्मकाण्ड में यह क्रिया सर्वप्रथम की जाती है। कुत्सायां क्विति शब्दोऽयं शरीरं बेरमुच्यते ।
कुशिक-(१) कान्यकुब्ज (कन्नौज) के पौराणिक राजाओं कुबेरः कुशरीरत्वान् नाम्ना तेनैव सोऽङ्कितः ॥
में से एक, जिसके नाम से कौशिक वंश चला । कुशिकतीर्थ [ 'कु' का प्रयोग कुत्सा ( निन्दा ) में होता है । 'बेर'
कान्यकुब्ज का एक पर्याय है । यह राजधानी ही नहीं, मध्यशरीर को कहते हैं। इसलिए कुत्सित शरीर धारण करने ।
युग तक प्रसिद्ध तीर्थ भी था, जिसकी गणना गहडवाल
अभिलेखों के अनुसार उत्तर भारत के पञ्चतीर्थों में होती थी। के कारण वे 'कुबेर' नाम से विख्यात हुए।]
(२) लकुली (लकुलीश, जो शिव के एध अवतार भागवत पुराण के अनुसार विश्रवा मुनि की इडविडा
समझे जाते हैं) के शिष्यों में से एक कुशिक हैं । उनके कुशिक (इलविला ) नामक भार्या से कुबेर उत्पन्न हुए थे। ये
आदि चार शिष्यों ने पाशुपत योग का पूर्ण अभ्यास धन, यज्ञ और उत्तर दिशा के स्वामी हैं। ये तीन चरणों और आठ दाँतों के साथ उत्पन्न हुए थे।
किया था। कुश (यज्ञीय तण)-यह एक पवित्र घास है । इसका प्रयोग
कुशीनगर-उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में कसया नामक यज्ञों के विविध कर्मकाण्डों तथा सभी हिन्दू संस्कारों में
कसबे के पास प्राचीन कुशीनगर है । अति प्राचीन काल में होता है । इसकी नोक बड़ी तेज होती है। इसीसे कुशाग्र
यह कुशावती नगरी (कुश की राजधानी) थी। पीछे यह बुद्धि का मुहावरा प्रचलित हुआ। इसकी उत्पत्ति का वर्णन
मल्ल गणतन्त्र की राजधानी बनी। यहीं पर बुद्ध ने परिइस प्रकार है:
निर्वाण प्राप्त किया था, अतएव यह स्थान बुद्धधर्मानुयाबहिष्मती माम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता । यियों का प्रमुख तीर्थस्थान हो गया है। गोरखपुर से पूर्वोन्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः ।। त्तर कसया (कुशीनगर) छत्तीस मील दूर है। खुदाई से
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