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चेतनः ।
उच्यते ॥
अधिष्ठानतया देहावच्छिन्न कूटवन्निर्विकारेण स्थितः कूटस्थ कूटस्थे कल्पिता बुद्धिस्तत्र चित्प्रतिबिम्बकः । प्राणानां धारणाज्जीवः संसारेण स युज्यते ॥ जलव्योम्ना घटाकाशो यथा सर्वस्तिरोहितः । तथा जीवेन कूटस्थः सोऽन्योन्याध्यास उच्यते ॥ अयं जीवो न कूटस्थं विविनक्ति कदाचन । अनादिरविवेकोऽयं मूलाविद्येति गम्यताम् ॥ विक्षेपावृत्तिरूपाभ्यां द्विधाविद्या प्रकल्पिता । न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृतिः ॥ अज्ञानी विदुषा पृष्टः कूटस्थं न प्रबुध्यते । न भाति नास्ति कूटस्थ इति बुद्ध्वा वदत्यपि ॥ श्रीमद्भगवद्गीता (१५.१६-१७) में सच्चिदानन्दस्वरूप पुरुषोत्तम को कूटस्थ कहा गया है : द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ कूटसाक्षी - धर्मशास्त्र में ( व्यवहारतत्त्व के अनुसार ) मायावी अथवा मिथ्यावादी साक्षी को कूटसाक्षी कहा गया है । याज्ञवल्क्यस्मृति में कूटसाक्षी का लक्षण निम्नां - कित है :
द्विगुणा वान्यथा ब्रूयुः कूटाः स्युः पूर्वसाक्षिणः । न ददाति तु यः साक्ष्यं जानन्नपि नराधमः । स कूटसाक्षिणां पापैस्तुल्यो दण्डेन चैव हि ॥
[ वे पूर्व साक्षी कूट कहे जाते हैं जो दूना (बढ़ाकर ) अथवा अन्यथा (असत्य) बोलते हैं । जो मनुष्य जानता हुआ भी साक्ष्य नहीं देता है वह भी कूटसाक्षी के समान ही अधम और दण्ड है । ] कूर्म - विष्णु का एक अवतार, जिसने भूमण्डल को अपनी पीठ पर धारण कर रखा है। कूर्म या कच्छप जलजन्तु है । धार्मिक रूपक, माङ्गलिक प्रतीक, तान्त्रिक उपचारादि के रूप में इसका उपयोग होता है। बृहत्संहिता (अ० ६४) के अनुसार मन्दिर में स्थापित कूर्म की प्रतिमा मङ्गलकारिणी होती है :
वैदूर्यवि स्थूलकण्ठत्रिकोणो गूढच्छिद्रश्चारुवंशश्च शस्तः । क्रीडावाप्यां तोयपूर्णे मणौ वा कार्यः कूर्मो मङ्गलार्थं नरेन्द्रः ॥
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कूटसाक्षी - कूर्मद्वादशी
शतपथ ब्राह्मण में कूर्म प्रजापति का अवतार माना
गया है :
' स यत् कूर्मो नाम एतद्वा रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत । यदसृजदकरोत्तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्म्मः कश्यपो वं कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप इति । (शतपथ ब्राह्मण, ७ ५. १-५) दे० 'कूर्मावतार' | पद्म पुराण के अनुसार सत्ययुग में देव और असुरों द्वारा समुद्रमन्थन के अवसर पर मन्दर पर्वत को धारण करने के लिए भगवान् विष्णु ने कूर्म का रूप ग्रहण किया (क्षीरोदमध्ये भगवान् कूर्मरूपी स्वयं हरिः । ) भागवतपुराण में भी यही बात कही गयी है । तन्त्रसार में यह एक मुद्रा का नाम है। इसका वर्णन इस प्रकार है :
देवताध्यान कर्मणि ॥
वामहस्तस्य तर्जन्यां दक्षिणस्य कनिष्ठया । तथा दक्षिण तर्जन्यां वामाङ्गुष्ठे न योजयेत् ॥ उन्नतं दक्षिणाङ्गुष्ठं वामस्य मध्यमादिकाः । अङ्गुलीर्योजयेत् पृष्ठे दक्षिणस्य करस्य च ॥ वामस्य पितृतीर्थेन मध्यमानामिके तथा । अधोमुखे च ते कुर्याद्दक्षिणस्य करस्य च ॥ कूर्मपृष्ठ मं कुर्याद्दक्षपाणि च सर्वशः । कूर्ममुद्रेयमाख्याता हठयोग में एक आसन का नाम कूर्मासन है : गुदं निरुध्य गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण समाहितः । कूर्मासनं भवेदेतदिति योगविदो विदुः ॥ तन्त्रों में एक चक्र का नाम भी कूर्मचक्र है । कूर्मतीर्थ - हिमालय में स्थित एक तीर्थ । बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सोधे चढ़ने से चरणपादुका का स्थान आता है । उसके ऊपर उर्वशीकुण्ड तथा इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ पड़ता है । यहाँ भगवान् विष्णु का कूर्म ( कच्छप) के रूप में पूजन होता है । कूर्म भूपृष्ठ का प्रतीक है, जो सभी जीवधारियों को धारण करता है । कूर्मद्वादशी - पौष शुक्ल द्वादशी । इस तिथि को कूर्म अव तार हुआ था, इसलिए विष्णु-नारायण की पूजा होती है । दे० वराह पुराण, अध्याय ४०; कृत्यरत्नाकर, ४८२-४८४ । घृत से परिपूर्ण ताम्रपात्र में एक कूर्म ( कछुए) की मूर्ति स्थापित करके उसके ऊपर मन्दराचल रखकर किसी सुपात्र को दान दिया जाता है। इस अनुष्ठान से भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं ।
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