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कुधिवाजश्रवस-कूटस्थपुरुष
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अन्थों की
हान शाङ्कर
खण्डन किया
निकली मूर्तियों के अतिरिक्त यहाँ माथाकुँवर का कोटा, तर्क-युक्तियों के बहुत तीव्र प्रखर जल से नास्तिकों के परिनिर्वाणस्तूप तथा परिनिर्वाणचैत्य, रामभारस्तूप हृदय को बड़ी मात्रा में धो डाला है, फिर भी पत्थर से आदि दर्शनीय हैं।
भी कठोर उन लोगों के मन में आप स्थान ग्रहण न कर परिनिर्वाणस्तुप में भगवान् बुद्ध की अस्थियाँ प्रतिष्ठा- सके । किन्तु “ईश्वर नहीं है", "ईश्वर नहीं है" इस
।। मूल स्तूप कुशीनगर के मल्लों ने ही प्रकार उलटे रूप में बड़े वेग से वे सब तत्परतापूर्वक बनवाया था, परन्तु उसके बाद भग्न होने पर अत्यन्त आपका ही चिन्तन करते हैं, अतः अन्त समय पर उनका पवित्र होने के कारण इस स्तूप का कई बार पुनर्निर्माण भी उद्धार करने की कृपा कीजियेगा।]
और संस्कार हुआ। परिनिर्वाणचैत्य में भगवान् बुद्ध की कूटसन्दोह-आचार्य रामानुज ने अपने मत की पुष्टि और परिनिर्वाण-मुद्रा में ( लेटी हुई ) विशाल लाल पत्थर की प्रचार के लिए 'श्रीभाष्य' के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थों की प्रतिमा है जिसके आसन के सामने भगवान् बुद्ध के परि- रचना की । इन ग्रन्थों में इन्होंने शाङ्कर मत का प्रबल निर्वाण का पूरा दृश्य अङ्कित है। इसी पर एक अभिलेख शब्दों में खण्डन किया है। रामानुजरचित ग्रन्थों की से ज्ञात होता है कि भिक्षु बल ने इस प्रतिमा का दान लम्बी सुची में एक ग्रन्थ 'कटसन्दोह' भी है।। किया था। रामभारस्तूप उस स्थान पर बना है, जहाँ कूटस्थ पुरुष-(१) शाक्त प्रणाली में यह धारणा है कि मल्लों का अभिषेक होता था और भगवान् बुद्ध का दाह- सर्वोच्च अन्तिम अवस्था में विष्ण वा शिव तथा उनकी शक्ति संस्कार हुआ था। माथावर के कोट में पालकालीन एक ही परमात्मा है, जिनमें कोई अन्तर नहीं है। केवल भगवान् बुद्ध की बैठी हुई एक सुन्दर प्रतिमा है। सृष्टिकाल में दोनों भिन्न होते हैं । सृष्टि को आरम्भिक कुभि वाजश्रवस-शतपथ ब्राह्मण (१०. ५. ५. १) में ।
प्रथम अवस्था में शक्ति जागृत होती है, जैसे नींद से पवित्र अग्नि के सक्तों के आचार्थ के रूप में तथा बृहदा
उठी हो । उसके दो रूप होते हैं : क्रिया तथा भूति । पुनः रण्यक उपनिषद् के अन्तिम वंश (शिक्षकों की सूची) में ये
उसके स्वामी के छः गुणों का उदय होता है, यथा ज्ञान, वाजश्रवा के शिष्य कहे गये हैं । यह स्पष्ट नहीं है कि
शक्ति, प्रतिभा, बल, शौर्य एवं सौन्दर्य । उनकी शक्ति बृहदारण्यक के अन्तिम वंश में उद्धृत कुश्रि तथा शतपथ
लक्ष्मी छहों जोड़े बनकर संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध के दशम अध्याय के वंश में उद्धृत कुश्रि, जिसे यज्ञवचस
(द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ व्यूह) तथा उनकी शक्ति के राजस्तम्बायन का शिष्य कहा गया है, दोनों एक हैं अथवा
रूप में प्रकट होती है । व्यूहों से १२ अर्धव्यूह तथा १२ भिन्न-भिन्न ।
विद्यश्वर उदित होते हैं । सृष्टि की इस अवस्था में विभवों
(विष्णु के अवतारों) का उदय होता है, जो संख्या में ३९ कुषोतक सामश्रवा-पञ्चविंश ब्राह्मण में इन्हें एक गृहपति
हैं। साथ ही बैकुण्ठ और उसके निवासियों का उदय कहा गया है। ये कौषीतकियों के एक यज्ञसत्र के समय
होता है। गृहपति बनाये गये थे।
सृष्टि के आरम्भ की दूसरी अवस्था में शक्ति का भूतिरूप कुसुमाञ्जलि-न्यायाचार्य उदयन की रचनाओं में सबसे ठोस आकार धारण करता है, जिसे 'कटस्थ पुरुष' तथा प्रसिद्ध कुसुमाञ्जलि है, जिसमें कुल ७२ स्मरणीय श्लोकों 'माया शक्ति' कहते हैं । कूटस्थ पुरुष व्यक्तिगत आत्माओं में ईश्वर की सत्ता प्रमाणित की गयी है । नैयायिकों में (जीवों) का समष्टिगत रूप है (जैसे अनेकों मधुमक्खियों यह ग्रन्थ बहुत प्रचलित है । इसकी अन्तिम भावपूर्ण और का एक छत्ता होता है), जबकि माया सृष्टि का भौतिक तर्कमयी शुभाशंसा है :
उपादान है। इत्येवं श्रुतिशास्त्रसप्लवजले भूयोभिराक्षालिते
(२) सांख्य दर्शन का कटस्थ पुरुष निलिप्त, केवल और येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसारोपमाः । द्रष्टा मात्र है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कूट (चोटी) पर किन्तु प्रोद्यतविप्रतीपविधयाप्युच्च भवच्चिन्तकाः बैठा हुआ। काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते तारणीया जनाः ।।
(३) पञ्चदशी (६.२२-२७) में परमात्मा के लिए इसका [ हे करुणामय प्रभो, इस ग्रन्थ में मैंने श्रुति-स्मृति- प्रयोग हुआ है :
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