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काशीखण्ड-काश्य
मिलता है । काशी में रहकर जो पाप करते हैं उन्हें यम- होती है, बुद्धि का विकास होता है और बहुदर्शिता आती यातना नहीं सहनी पड़ती, चाहे वे काशी में मरें या है। इसलिए तीर्थयात्राओं को हिन्दू धर्म पुण्यदायक अन्यत्र । जो काशी में रहकर पाप करते हैं वे कालभैरव मानता है । तीर्थों में सत्सङ्ग और अनुभव से ज्ञान बढ़ता द्वारा दण्डित होते हैं । जो काशी में पाप करके कहीं अन्यत्र है और पापों से बचने की भावना उत्पन्न होती है। मरते हैं वे राम नामक शिव के गण द्वारा सर्वप्रथम 'काशीखण्ड' में काशी के बहुसंख्यक तीर्थी और उनके यातना सहते हैं, तत्पश्चात् वे कालभैरव द्वारा दिये गये
इतिहास एवं माहात्म्य का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दण्ड को सहस्रों वर्षों तक भोगते हैं। फिर वे नश्वर
काशीखण्ड वास्तव में काशीप्रदर्शिका है। मानवयोनि में प्रविष्ट होते हैं और काशी में मरकर
काशीमोक्षनिर्णय-मण्डन मिश्र ने इस ग्रन्थ का प्रणयन निर्वाण (मोक्ष या संसार से मुक्ति) पाते हैं।
संन्यास ग्रहण करने के पूर्व किया था। काशी में निवास स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (८५, ११२-११३) में यह करने से मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, इसका इसमें युक्तियुक्त उल्लेख है कि काशी से कुछ उत्तर में स्थित धर्मक्षेत्र (सार- विवेचन है। नाथ) विष्णु का निवासस्थान है, जहाँ उन्होंने बुद्ध का रूप काशीविश्वनाथ-काशी को विश्वनाथ (शिव) की नगरी धारण किया था। यात्रियों के लिए सामान्य नियम यह कहा गया है। यहाँ पर शिवलिङ्गमति की अर्चा प्रचलित है कि उन्हें आठ मास तक संयत होकर स्थान-स्थान पर है । मन्दिर के गर्भ भाग में प्रवेश कर दर्शन करते हैं और भ्रमण करना चाहिए। फिर दो या चार मास तक एक
काशीविश्वनाथ के लिङ्ग का पूजन भी करते हैं, बिल्वस्थान पर निवास करना चाहिए। किन्तु काशी में प्रविष्ट
पत्र-पुष्पादि चढ़ाते हैं। काशी का विश्वनाथमन्दिर उत्तर होने पर वहाँ से बाहर भ्रमण नहीं होना चाहिए और
भारत के शैव मन्दिरों में सर्वोच्च स्थान रखता है । इसका काशी छोड़ना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वहाँ मोक्ष प्राप्ति
निर्माण अठारहवीं शती के अन्तिम चरण में महारानी निश्चित है।
अहल्याबाई होल्कर ने कराया था। इसके शिखर पर लगा भगवान शिव के श्रद्धाल भक्त के लिए महान विपत्तियों हुआ सोना महाराज रणजीतसिंह द्वारा प्रदत्त है। में भी उनके चरणों के जल के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र स्थान काश्मीरक सदानन्दयति-'अद्वैतब्रह्मसिद्धि' नामक प्रकरणनहीं है। बाह्याभ्यन्तर असाध्य रोग भी भगवान् शङ्कर ग्रन्थ के प्रणेता । इनका जीवनकाल सत्रहवीं शताब्दी है । की प्रतिमा पर पड़े जल के आस्थापूर्ण स्पर्श से दूर हो इनके नाम के साथ 'काश्मीरक' शब्द का व्यवहार होने से जाते हैं (काशीखण्ड, ६७, ७२-८३)। दे० 'अविमुक्त' । जान पड़ता है कि ये कश्मीर देशीय थे । इनकी 'अद्वैतब्रह्मकाशीखण्ड-स्कन्दपुराण का एक भाग, जिसमें तीर्थ के
सिद्धि' अद्वैतमत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है । इसमें प्रतितीन प्रकार कहे गये हैं-(१) जङ्गम, (२) मानस और
बिम्बवाद एवं अवच्छिन्नवाद सम्बन्धी मतभेदों की विशेष (३) स्थावर । पवित्रस्वभाव, सर्वकामप्रद ब्राह्मण और
विवेचना में न पड़कर 'एकब्रह्मवाद' को ही वेदान्त का गौ जङ्गम तीर्थ हैं । सत्य, क्षमा, शम, दम, दया, दान,
मुख्य सिद्धान्त बताया गया है। जब तक प्रवल साधना के आर्जव, सन्तोष, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, तपस्या आदि मानस
द्वारा जिज्ञासु ऐकात्म्य का अनुभव नहीं कर लेता तभी तीर्थ हैं। गङ्गादि नदी, पवित्र सरोवर, अक्षय वटादि
तक वह इस वाग्जाल में फंसा रहता है। अन्यथा 'ज्ञाते पवित्र वृक्ष, गिरि, कानन, समुद्र, काशी आदि पुरी
द्वैतं न विद्यते' (ज्ञान होने पर द्वैत समाप्त हो जाता है)। स्थावर तीर्थ हैं। पद्मपुराण में इस धरती पर साढ़े तीन काश्य-उज्जयिनीनिवासी एक विद्वान् कुलाचार्य (अध्याकरोड़ तीर्थों का उल्लेख है। जहाँ कहीं कोई महात्मा पक), जो बलराम और कृष्ण के गुरु हुए। इनके पिता प्रकट हो चुके हैं, या जहाँ कहीं किसी देवी या देवता ने संदीपन और पूर्वनिवास काशी रहा होगा : लीला की है, उसी स्थान को हिन्दुओं ने तीर्थ मान लिया अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः । है। भारतभूमि में इस प्रकार के असंख्य स्थान हैं। काश्यं सान्दीपिनि नाम हवन्तीपुरवासिनम् ।। तीर्थाटन करने तथा देश में घूमने से आत्मा की उन्नति
(भागवत पु०, १०.४५.३१)
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