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कालाग्नि-कालिकापुराण
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नन्तर एक शैव ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण या किसी पारसी द्वारा हवनकुण्ड में हवन कराना चाहिए। आठ कन्याओं को भोजन कराने तथा आठ ही ब्राह्मणों को निमन्त्रित करने का विधान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.३२६-३३२ (कालिका पुराण से)। कालाग्नि-काल का वह स्वरूप, जो प्रलय के समय समस्त सृष्टि का विनाश करता है । यह प्रलयाग्नि' भी कहलाता है । महाभारत (१.५४.२५) में कथन है : ब्रह्मदण्डं महाघोरं कालाग्निसमतेजसम् । नाशयिष्यामि मात्र त्वं भयं कार्षीः कथञ्चन ॥
पञ्चमुख रुद्राक्ष का नाम भी कालाग्नि है। स्कन्दपुराण में उल्लेख है :
पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नाम नामतः । अगम्यागमनाच्चैव अभक्ष्यस्य च भक्षणात् ॥
मुच्यते सर्वपापेभ्यः पञ्चवक्त्रस्य धारणात् । कालाग्निरुद्र-जगत् का संहार करनेवाले कालाग्नि के अधिष्ठातृदेव । देवीपुराण में कालाग्निरुद्र का वर्णन पाया जाता है:
कालाग्निरुद्ररूपो यो बहुरूपसमावृतः ।। अनन्तपद्मरूपश्च धाता यः कारणेश्वरः । दारुणाग्निश्च रुद्रश्च यमहन्ता क्षमान्तकः ।। लोहितः क्रूरतेजात्मा घनो वृष्टिर्बलाहकः । विद्युतश्चलशीलश्च प्रसन्नः शान्तसौम्यदृक् ।। सर्वज्ञो विविधो बुद्धो द्युतिमान् दीप्तिसुप्रभः । एते रुद्रा महात्मानः कालिकाशक्तिबंहिताः ।।
संहरन्ति समन्तेदं ब्रह्माद्यं सचराचरम् । कालाग्निरुद्रोपनिषद्-एक शैव सांप्रदायिक उपनिषद्, जिसमें त्रिपुण्ड्र धारण और रहस्यमय ढंग से ध्यान करने का विवरण प्राप्त होता है। कालाष्टमीव्रत-मृगशिरा नक्षत्र युक्त भाद्रपद की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए । एक वर्ष पर्यन्त यह क्रम चलना चाहिए । मान्यता है कि इस दिन शिव- जी विना नन्दीगण अथवा गणेश के अपने मन्दिर में विराजते हैं। व्रती विभिन्न वस्तुओं से शिवजी को स्नान कराता है, भिन्न-भिन्न पुष्प समर्पित करता है तथा प्रत्येक महीने में पृथक्-पृथक् नामों से पूजन करता है। कालिका-काले (कृष्ण) वर्णवाली । यह चण्डिका का ही एक रूप है। इसके नामकरण तथा स्वरूप का वर्णन
कालिकापुराण (उत्तरतन्त्र, अ० ६०) में निम्नांकित प्रकार से पाया जाता है : सर्वे सुरगणाः सेन्द्रास्ततो गत्वा हिमाचलम् । गङ्गावतारनिकटे महामायां प्रतुष्टुवुः ।। अनेकः संस्तुता देवी तदा सर्वामरोत्करः । मातङ्गवनितामूर्तिभूत्वा देवानपृच्छत । युष्माभिरमररत्र स्तूयते का च भाविनी । किमर्थमागता यूयं मातङ्गस्याश्रमं प्रति ॥ एवं ब्रुवन्त्या मातङ्गयास्तस्यास्तु कायकोषतः । समुद्भूताब्रवीद्देवी मां स्तुवन्ति सुरा इति ॥ शुम्भो निशुम्भो ह्यसुरौ बाधेते सकलान् सुरान् । तस्मात्तयोर्वधायाहं स्तूयेऽद्य सकलैः सुरैः ।। विनिःसृतायां देव्यान्तु मातङ्गयाः कायतस्तदा । भिन्नाञ्जननिभा कृष्णा साभूद् गौरी क्षणादपि । कालिकाख्याऽभवत्सापि हिमाचलकृताश्रया। तामुग्रतारां ऋषयो वदन्तीह मनीषिणः ॥ उग्रादपि भयात्त्राति यस्माद् भक्तान् सदाम्बिका ।। [इन्द्र के साथ सभी देवतागण हिमालय में गङ्गावतरण के पास महामाया को प्रसन्न करने लगे। उनके द्वारा स्तुति किये जाने पर देवी ने मातङ्गवनिता की मति धारण करके देवताओं से पूछा, "तुम अमरों द्वारा किस भाविनी की स्तुति की जा रही है ? किस प्रयोजन के लिए तुम लोग मातङ्ग-आश्रम में आये हो ?" ऐसा बोलती हुई उस मातङ्गी के शरीर से एक देवी उत्पन्न हुई। उसने कहा, "देवगण मेरी स्तुति कर रहे हैं । शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर सभी देवताओं को पीड़ित कर रहे हैं। इसलिए उनके वध के लिए समस्त देवताओं द्वारा मेरी स्तुति हो रही है।" मातङ्गी की काया से उसके निकल जाने पर वह घोर काजल सदृश कृष्णा (काली) हो गयी । वही कालिका कहलायी, जो हिमालय के आश्रय में रहने लगी। उसी को ऋषि लोग उग्रतारा कहते हैं। क्योंकि वह उन भय से भक्तों का सदा त्राण करती है । ] कालिका उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से एक। इसमें देवी दुर्गा की महिमा तथा शाक्तमत का प्रतिपादन किया गया है। कालिकापुराण-कालिकापुराण को ही 'कालिकातन्त्र' भी कहते हैं। यह बंगाल में प्रचलित शाक्तमत का नियामक ग्रन्थ है। इसमें चण्डिका को पशु अथवा मनुष्य की
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