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कारिका-काल
आचार्य थे। वे प्रायः वादरि के मत के समर्थक प्रतीत होते हैं ।
कारिका - स्मरणीय छन्दोबद्ध पचों के संकलन को कारिका कहते हैं। हिन्दू दार्शनिकों ने अपने दर्शन के सारविषय को या तो सूत्रों के रूप में या कारिका के रूप में अपने अनुगामियों के लाभार्थ प्रस्तुत किया, ताकि वे इसे कंठस्थ कर लें। उनके अनुगामियों ने उन सूत्रों या कारिकाओं के ऊपर भाष्य आदि लिखे। उदाहरण के लिए सांख्यदर्शन पर ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका' अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसका अनुवाद अति प्राचीन काल में चीनी भाषा में उस देश की राजाज्ञा से हुआ था ।
कारिकावाक्य प्रदीप पाणिनि पर अवलम्बित अनेक व्याकरणसिद्धान्त ग्रन्थों में एक कारिकावाक्यप्रदीप है। इससे सम्बन्धित चार अन्य टीकाग्रन्थ व्याकरणभूषण, भूषणसारदर्पण, व्याकरणभूषण सार एवं व्याकरणसिद्धान्तमञ्जूषा है 'वाक्यप्रदीप' व्याकरण का दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें भी कारिकाएँ हैं ।
कारिणनाथ - नाथ सम्प्रदाय में नौ नाथ मुख्य कहे गये है: गोरखनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ आदि । कारिणनाथ उनमें तीसरे हैं। गोरखपंथी कनफट्टा योगियों के अन्तर्गत कारिणनाथ के विचारों का समावेश होता है । कारुणिक सिद्धान्त कारुणिक सिद्धान्त को 'कालमुख सिद्धान्त' भी कहते हैं महीसूर (कर्नाटक) के समीप 'दक्षिण केदारेश्वर' का मन्दिर प्रसिद्ध है। वहां की गुरुपरम्परा में श्रीकण्ठाचार्य वेदान्त के भाष्यकार हुए हैं । वे आचार्य रामानुज की तरह विशिष्टाईतवादी थे और कालमुख व 'लकुलागम समय' सम्प्रदाय के अनु शैव यायी थे । श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट कर लेते हैं । इस शक्ति में जीव और जगत्, चित् और अचित्, दोनों का बीज वर्तमान रहता है। उसी शक्ति से भगवान् महेश्वर चराचर की सृष्टि करते हैं । इसी सिद्धान्त को 'शक्तिविशिष्टाद्वैत' कहते हैं, यही कारुणिक सिद्धान्त भी कहलाता है । वीरशैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को भी अपनाते हैं। दक्षिण का लकुलीश सम्प्रदाय भी प्राचीन और गधीन दो रूपों में बंटा हुआ है और कदाचित् इस
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सम्प्रदाय के अनुयायी कालमुख अथवा कारुणिक सिद्धान्त को मानते है ।
फारोहन- दे० 'कायारोहण' ।
काल - वैशेषिक दर्शन के अनुसार कुल नौ द्रव्य है। इनमें छठा द्रव्य 'काल' है यह सभी क्रिया, गति एवं परि वर्तन को उत्पन्न करनेवाली शक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है ओर इस प्रकार दो समयों के अन्तर को प्रकट करने का आधार है । सातवाँ द्रव्य दिक् ( दिशा ) काल को सन्तुलित करता है तन्त्रमत से अन्तरिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही जरा की उत्पत्ति होती है । भाषापरिच्छेद के अनुसार काल के पाँच गुण
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६ -- १. संख्या २ परिमाण ३ पृथक्त्व, ४ संयोग, ५. विभाग ।
विष्णुपुराण (१.२.१४) में काल को परब्रह्म का रूप माना गया है :
द्विज ।
परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं व्यक्ताव्यक्तं तथैवान्ये रूपे कालस्तथा परम् ॥ तिथ्यादितत्त्व में काल की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है :
अनादिनिधनः कालो रुद्रः संकर्षणः स्मृतः । कलनात् सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः ॥ [ काल आदि और निधन (विनाश ) रहित, रूद्र और संकर्षण कहा गया है। समस्त भूतों की फलना ( गणना ) करने के कारण यह काल ऐसा प्रसिद्ध है । ] हारीत ( प्रथम स्थान, अ० ४) के द्वारा काल का विस्तृत वर्णन किया गया है :
कालस्तु त्रिविधो ज्ञेयोऽतीतोऽनागत एव च । वर्तमानस्तृतीयस्तु वक्ष्यामि शृणु लक्षणम् ॥ काल: कलयते लोक काल: कलयते जगत् । काल: कलयते विश्वं तेन कालोऽभिधीयते ॥ कालस्य वशगाः सर्वे देवर्षिसिद्ध किन्नराः । कालो हि भगवान् देवः स साक्षात्परमेश्वरः ॥ सर्गपालन संहर्ता स काल: सर्वतः समः । कालेन कल्प्यते विश्वं तेन कालोऽभिधीयते ॥ येनोत्पत्तिश्च जायेत येन वै कल्प्यते कला । सोऽन्तवच्च भवेत्कालो जगदुत्पत्तिकारकः ॥ यः कर्माणि प्रपश्येत प्रकर्षे वर्तमानके । सोऽपि प्रवर्तको शेयः कालः स्यात् प्रतिपालक ||
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