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कामावाप्तिव्रत- कायारोहण
में सती के योनिमण्डल का पतन हुआ। यहाँ महामाया देवी विलीन हुई मुझ पर्वत रूपी शिव में देवी के विलीन होने से इस पर्वत का नाम नीलवर्ण हुआ । यह महातुङ्ग ( ऊँचा ) पर्वत पाताल के तल में प्रवेश कर
"
गया।
इस तीर्थस्थल के मन्दिर में शक्ति की पूजा योनिरूप में होती है। यहाँ कोई देवीमूर्ति नहीं है । योनि के आकार का शिलाखण्ड है, जिसके ऊपर लाल रंग की गेरू के घोल की धारा गिरायी जाती है और वह रक्तवर्ण के वस्त्र से ढका रहता है। इस पीठ के सम्मुख पशुबलि भी होती है ।
कामावासिथत कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। इस तिथि में महाकाल (शिव) का पूजन समस्त मनोवाञ्छाओं को पूरा करता है । कामिकागम - शैव आगमों में सबसे पहला आगम 'कामिक' है इसमें समस्त शैव पूजा पद्धतियों का विस्तृत वर्णन है।
कामिकाव्रत - मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । इस तिथि को सुवर्ण अथवा रजतप्रतिमा का जिस पर चक्र अंकित हो, पूजन करना चाहिए। पूजन करने के पश्चात् उसे दान कर देना चाहिए ।
काम्पिल - यह स्थान बदायूँ जिले में है। पूर्वोत्तर रेलवे की आगरा कानपुर लाइन पर कायमगंज रेलवे स्टेशन है। कायमगंज से छः मील दूर काम्पिल तक पक्की सड़क जाती है। किसी समय काम्पिल ( ल्य) महानगर था यहाँ रामेश्वरनाथ और कालेश्वरनाथ महादेव के प्रसिद्ध मन्दिर हैं और कपिल मुनि की कुटी है ।
जैनों के अन्तिम तीर्थंकर महावीर का समवशरण भी यहाँ आया था । यहाँ प्राचीन जैनमन्दिर है, जिसमें विमलनाथजी की तीन प्रतिमाएँ हैं। एक जैनधर्मशाला है । चैत्र और आश्विन में यहाँ मेला लगता है । काम्पील-यजुर्वेदसंहिता के एक मन्त्र में 'काम्पीलवासिनी'
सम्भवतः राजा की प्रधान रानी को कहा गया है, जिसका कर्तव्य अश्वमेध यज्ञ के समय मेचित पशु के पास सोना या बिल्कुल ठीक अर्थ अनिश्चित है। वेबर एवं जिमर दोनों काम्पील एक नगर का नाम बतलाते हैं, जो पर वर्ती साहित्य में काम्पिल्य कहलाया एवं जो मध्यदेश २३
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(आज के उत्तर प्रदेश) में दक्षिण पञ्चाल की राजधानी था ।
काम्यतीर्थं या काम्यक वन - कुरुक्षेत्र के सात पवित्र वनों
में से एक । यह सरस्वती के तट पर स्थित है । यहीं पर पाण्डवों ने अपने प्रवास के कुछ दिन बिताये थे । यहाँ वेतन से गये थे। ज्योतिसर से पेहवा जाने वाली सड़क के दक्षिण में लगभग ढाई मील पर कमोधा ग्राम है । काम्यक का अपभ्रंश ही कमोधा है । यहाँ ग्राम के पश्चिम में काम्यक तीर्थ है। सरोवर के एक ओर प्राचीन पक्का घाट है तथा भगवान् शिव का मन्दिर है । चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रति वर्ष यहाँ मेला लगता है । कायव्यूह योगदर्शन में अनेक शारीरिक क्रियाओं द्वारा मन को केन्द्रित करने का निर्देश है। जब योगशास्त्र से तन्त्रशास्त्र का मेल हो गया तो इस 'कायव्यूह' (शारीरिक यौगिक क्रियाओं) का और भी विस्तार हुआ, जिसके अनुसार शरीर में अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किये गये। क्रियाओं का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक स्वतन्त्र शाखा विकसित हुई, जिसमें नैति पीति वस्ति आदि पट्कर्म तथा नाडीशोधन आदि के साधन बतलाये गये हैं ।
काया (गोरखपंथ के मत से ) — गोरखनाथ पंथी का सापक काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है । काया उसके लिए वह यन्त्र है, जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है; जन्ममरण - जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है; जरा, मरण, व्याधि और काल पर विजय पा जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले कायाशोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट्कर्म (नेति, धौति वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक ) करता है जिससे काया शुद्ध हो जाय। हठयोग पर घेरण्ड ऋषि की लिखी 'घेरण्डसंहिता' एक प्राचीन ग्रन्थ है और परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर चली आयी है। नायपन्थियों ने उसी प्राचीन सात्विक प्रणाली का उद्धार किया है। कायारोहण - लाट ( गुर्जर ) प्रान्त में एक स्थानविशेष है । वायुपुराण के एक परिच्छेद में लकुलीश उपसम्प्रदाय ( पाशुपत सम्प्रदाय के एक अङ्ग) के वर्णन में उद्भूत है कि शिव प्रत्येक युग में अवतरित होंगे और उनका अन्तिम अवतार तब होगा जब कृष्ण वासुदेव रूप में अवतरित
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