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कालेश्वरं गिरि पुरं नीलपर्वतम्। कामरूपाभिधी देशो गणेशगिरि मूर्द्धनि ॥ कामरूपी - इच्छानुकूल वेशधारी । अर्धदेवों में गन्धर्व एवं विद्याधरों का नाम आता है। विद्याधरों का विशेष गुण आकाश में उड़ना है, जिसके कारण इन्हें 'सेयर' (आकाश में चलने वाला ) कहा जाता है। ये वेश बदलने अथवा मनोवांछित रूप धारण करने की विद्या (जादू) जानते हैं, जिसके कारण इन्हें कामरूपी कहते हैं। कामवन --- जिसमें शिव पार्वती एकान्तवास करते हैं । इसे कुछ लोग काम्यकवन भी कहते हैं । शिव का शाप था कि जो कोई पुरुष इसमें प्रवेश करेगा वह तुरन्त स्त्री बन जायेगा। मनु का पुत्र इल भूल से इसमें प्रविष्ट होकर स्त्री इला बन गया था ।
व्रजमण्डल के भरतपुर जिले में भी कामवन है, जहाँ गोविन्ददेवजी के मन्दिर में वृन्दा देवी का महल है। यहाँ चौरासी तीर्थों की उपस्थिति मानी जाती है । कामव्रत - ( १ ) केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है । यह कार्तिक में प्रारम्भ होकर एक वर्ष पर्यन्त चलता है । इसमें सूर्य का पूजन होता है । हेमाद्रि के अनुसार यह स्त्रीपुत्रकामावाप्ति-उत्सव है ।
(२) पौष शुक्ल त्रयोदशी को प्रारम्भ होकर तदनन्तर एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है । प्रत्येक त्रयोदशी को नक्त (रात्रिभोजन) करना चाहिए । चैत्र में सुवर्ण का अशोक वृक्ष तथा १० अंगुल लम्बा इक्षुदण्ड इस मन्त्र के साथ दान करना चाहिए 'प्रद्युम्नः प्रसीदतु ।'
(३) किसी भी महीने की सप्तमी को यह व्रत किया जा सकता है । सुवर्चला (सूर्य की पत्नी) को इसमें पूजा होती है। मनोवांछित पदार्थों की इससे उपलब्धि होती है।
(४) पौष शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है । इसमें कार्तिकेय के रूप में भगवान् विष्णु की पूजा होती है | पञ्चमी को नक्त करना चाहिए। षष्ठी के दिन केवल एक समय का आहार सप्तमी को पारण ऐसा एक वर्ष पर्यन्त करना चाहिए । स्वामी कार्तिकेय की सुवर्णप्रतिमा तथा दो वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे मनुष्य जीवन में समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है। हेमाद्रि ( व्रतखण्ड) के अनुसार यह 'कामपण्टी' व्रत है। कामाख्या देवी कामाख्या शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है "जो भक्तों की कामना को पूर्ण करती है
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कामरूपी कामाख्यापीठ
अथवा भक्त साधकों द्वारा जिसकी कामना की जाती है। वह 'कामा' है जिसका 'कामा' नाम है वह 'कामाख्या'
है ।" कालिकापुराण ( अ० ६१ ) में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है ।
कामाख्या पीठ - यह भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ तीर्थ असम प्रदेश में है । कामाख्या देवी का मन्दिर पहाड़ी पर है, अनुमानतः एक मील ऊँची इस पहाड़ी को 'नोल पर्वत' भी कहते हैं। इस प्रदेश का प्रचलित नाम कामरूप है। तन्त्रों में लिखा है कि करतोया नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र नद तक त्रिकोणाकार कामरूप प्रदेश माना गया है । किन्तु
अब वह रूपरेखा नहीं है । इस देश में सौभारपीठ, श्रीपीठ, रत्नपीठ, विष्णुपीठ, रुद्रपीठ तथा ब्रह्मपीठ आदि कई सिद्धपीठ हैं, 'कामाख्यापीठ' सबसे प्रधान है। देवी का मन्दिर कूचविहार के राजा विश्वसिंह और शिवसिंह का बनवाया हुआ है। इसके पहले के मन्दिर को बंगाली आक्रामक काला पहाड़ ने तोड़ डाला था । सन् १५६४ ई० तक प्राचीन मन्दिर का नाम 'आनन्दाख्या' था, जो वर्तमान मन्दिर से कुछ दूरी पर है। पास में छोटा सा सरोवर है।
देवीभागवत (७ स्कन्ध, अ० ३८ ) में कामाख्या देवी के माहात्म्य का वर्णन है। इसका दर्शन, भजन, पाठ-पूजा करने से सर्व विघ्नों की शान्ति होती है। पहाड़ी से उतरने पर गोहाटी के सामने ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य में उमानन्द नामक छोटे चट्टानी टापू में शिवमन्दिर है। आनन्दमूर्ति को भैरव ( कामाख्यारक्षक) कहते हैं । कामाख्यापीठ के सम्बन्ध में कालिकापुराण (अ० ६१ ) में निम्नांकित वर्णन पाया जाता है :
"शिव ने कहा, प्राणियों की सृष्टि के पश्चात् बहुत समय व्यतीत होने पर मैंने दक्षतनया सती को भार्यारूप में ग्रहण किया, जो स्त्रियों में श्रेष्ठ थी । वह मेरी अत्यन्त प्रेयसी भार्या हुई । अपने पिता द्वारा यज्ञ के अवसर पर मेरा अपमान देखकर उसने प्राण त्याग किया। मैं मोह से व्याकुल हो उठा और सती के मृत शरीर को कन्धे पर रखकर समस्त चराचर जगत् में भ्रमण करता रहा । इधर-उधर घूमते हुए इस श्रेष्ठ पीठ (तीर्थस्थल) को प्राप्त हुआ । पर्याय से जिन-जिन स्थानों पर सती के अंगों का पतन हुआ, योगनिद्रा (मेरी शक्ति सती) के प्रभाव से वे पुण्यतम स्थल बन गये। इस कुब्जिकापीठ ( कामाख्या)
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