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आचार्यकारिका-आज्ञा
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इन्ही तीन रूपों में है)। याज्ञवल्क्य ने आचार के अन्तर्गत स्वामी की जीवनी, जिसे काशी के पं० राममिथ शास्त्री निम्नलिखित विषय सम्मिलित किया है : (१) संस्कार ने लिखा है। (२) वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम (३) विवाह आजकेशिक-'जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण' ( १.९.३ ) के एवं पत्नी के कर्त्तव्य (४) चार वर्ण एवं वर्णसंकर (५) अनुसार एक परिवार का नाम, जिसके एक सदस्य बक ने ब्राह्मण गृहपति के कर्त्तव्य (६) विद्यार्थी-जीवन समाप्ति के इन्द्र पर आक्रमण किया था। बाद कुछ पालनीय नियम (७) विधिसंमत भोजन एवं आचार(सप्त)-कुछ तन्त्र ग्रन्थों में वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, निषिद्ध भोजन के नियम (८) वस्तुओं की धार्मिक पवित्रता वाम, सिद्धान्त और कूल ये सात प्रकार के आचार बतलाये (९) श्राद्ध (१०) गणपति की पूजा (११) ग्रहों की शान्ति गये हैं । ये सातों आचार तीनों यानों ( देवयान, पितृयान के नियम एवं (१२) राजा के कर्त्तव्य आदि ।
एवं महायान ) के अन्तर्गत माने जाते हैं। महाराष्ट्र के __स्मृतियों में आचार के तीन विभाग किये गये हैं : (१) । वैदिकों में वेदाचार, रामानुज और इतर वैष्णवों में वैष्णदेशाचार (२) जात्याचार और (३) कुलाचार । दे० वाचार, शङ्करस्वामी के अनुयायी दाक्षिणात्य शैवों में दक्षि'सदाचार' । देश विशेष में जो आचार प्रचलित होते हैं णाचार, वीर शैवों में शैवाचार और वीराचार तथा केरल, उनको देशाचार कहते हैं, जैसे दक्षिण में मातुलकन्या मे गौड, नेपाल और कामरूप के शाकों में क्रमशः वीराचार, विवाह । इसी प्रकार जातिविशेष में जो आचार प्रचलित वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं कौलाचार, चार प्रकार होते हैं उन्हें जात्याचार कहा जाता है, जैसे कुछ जातियों के आचार देखे जाते है । पहले तीन आचारों के प्रतिपादक में सगोत्र विवाह । कुल विशेष में प्रचलित आचार को थोड़े ही तन्त्र हैं, पर पिछले चार आचारों के प्रतिपादक कुलाचार कहा जाता है। धर्मशास्त्र में इस बात का राजा तन्त्रों की तो गिनती नहीं है। पहले तीनों के तन्त्रों में को आदेश दिया गया है कि वह आचारों को मान्यता पिछले चारों आचारों की निन्दा की गयी है। प्रदान करे । ऐसा न करने से प्रजा क्षुब्ध होती है। आजि-अथर्ववेद (११ ७.७ ), ऐतरेय ब्राह्मण एवं श्रौत
सूत्रों में वर्णित वाजपेय यज्ञ के अन्तर्गत तीन मख्य क्रियाएं सोलहवीं शताब्दी का है।
होती थीं-१. आजि ( दौड़ ), २. रोह ( चढ़ना) और आचार्यपद-हिन्दू संस्कृति में मौखिक व्याख्यान द्वारा बड़े ३. संख्या । अन्तिम दिन दोपहर को एक धावनरथ यज्ञजनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा न थी। यहाँ मण्डप में घुमाया जाता था, जिसमें चार अश्व जुते होते के जितने आचार्य हुए हैं सबने स्वयं के व्यक्तिगत कर्तव्य थे, जिन्हें विशेष भोजन दिया जाता था। मण्डप के पालन द्वारा लोगों पर प्रभाव डालते हुए आदर्श आचरण
बाहर अन्य सोलह रथ सजाये जाते, सत्रह नगाड़े बजाये अथवा चरित्र के ऊपर बहुत जोर दिया है। समाज का
जाते तथा एक गूलर की शाखा निर्दिष्ट सीमा का बोध प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार से ही संभव है । विचारों के
कराती थी। रथों की दौड़ होती थी, जिसमें यज्ञकर्ता कोरे प्रचार से आचार संगठित नहीं हो सकता। इसी विजयी होता था। सभी रथों के घोड़ों को भोजन दिया कारण आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक जाता था एवं रथ घोड़ों सहित पुरोहितों को दान कर दिये आचार्य कहलाते थे। उपदेशक उनका नाम नहीं था। जाते थे। इनकी परिभाषा निम्नाङ्कित है :
आज्यकम्बल विधि-भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं में से आचिनोति हि शास्त्रार्थान् आचरते स्थापयत्यपि । एक । जिस समय सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट हो रहा हो स्वयं आचरते यस्तु आचार्यः स उच्यते ॥ उस समय यह विधि की जाती है। दे० गदाधरपद्धति, [जो शास्त्र के अर्थों का चयन करता है और कालसारभाग, १९१।। ( उनका ) आचार के रूप में कार्यान्वय करता है तथा आज्ञा-योगसाधना के अन्तर्गत कुण्डलिनी उत्थापन का स्वयं भी उनका आचरण करता है, वह आचार्य कहा छठा स्थान या चक्र, जिसकी स्थिति भ्र मध्य में मानी गयी जाता है।]
है । दक्षिणाचारी विद्वान् लक्ष्मीधर ने 'सौन्दर्यलहरी' के आचार्यपरिचर्या-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य रामानुज ३१ वें श्लोक को टीका में ६४ तन्त्रों की चर्चा करते हुए
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