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आगम
कलिकल्मषदीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरि । मेध्यामध्यविचाराणां न शुद्धिः श्रौतकर्मणा ॥ न संहिताभिः स्मृतिभिरिष्टसिद्धिर्नृणां भवेत् । सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सत्यं यथोच्यते ।। विना ह्यागममार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये । श्रुतिस्मृतिपुराणादौ मयैवोक्तं पुरा शिवे ।। आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत् सुधीः ॥ [ कलि के दोष से दीन ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य को पवित्र- अपवित्र का विचार न रहेगा। इसलिए वेदविहित कर्म द्वारा वे किस तरह सिद्धि लाभ करेंगे ? ऐसी अवस्था में स्मृति-संहितादि के द्वारा भी मानवों की इष्टसिद्धि नहीं होगी । मैं सत्य कहता हूँ, कलियुग में आगम मार्ग के अतिरिक्त कोई गति नहीं है। मैंने वेद-स्मृति-पुराणादि में कहा है कि कलियुग में साधक तन्त्रोक्त विधान द्वारा ही देवों की पूजा करेंगे । ]
आगमों की रचना कब हुई, यह निर्णय करना कठिन है । अनुमान किया जाता है कि वेदों की दुरूहता और मंत्रों के कीलित होने से महाभारत काल से लेकर कलि के आरम्भ तक अनेक आगमों का निर्माण हुआ होगा। आगम अति प्राचीन एवं अति नवीन दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
आगमों से ही शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आचार, विचार, शील, विशेषता और विस्तार का पता लगता है । पुराणों में इन सम्प्रदायों का सूत्र रूप से कहींकहीं वर्णन हुआ है, परन्तु आगमों में इनका विस्तार से वर्णन है । आजकल जितने सम्प्रदाय हैं प्रायः सभी आगम ग्रन्थों पर अवलम्बित हैं।
मध्यकालीन शैवों को दो मोटे विभागों में बाँटा जा सकता है-पाशुपत एवं आगमिक । आगमिक शवों की चार शाखाएँ हैं, जो बहुत कुछ मिलती-जुलती और आगमों को स्वीकार करती हैं। वे हैं-(१) शैव सिद्धान्त की संस्कृत शाखा, (२) तमिल शैव, (३) कश्मीर शैव और (४) वीर शैव । तमिल एवं वीर शैव अपने को माहेश्वर कहते हैं, पाशुपत नहीं, यद्यपि उनका सिद्धान्त महाभारत में वर्णित पाशुपत सिद्धान्तानुकूल है । __आगमों की रचना शैवमत के इतिहास की बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है । आगम अट्ठाईस हैं जो दो भागों में विभक्त हैं। इनका क्रम निम्नांकित है :
(१) शैविक-कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान् और सप्रभ (सुप्रभेद)।
(२) रौद्रिक-विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चन्द्रहास (चन्द्रज्ञान), मुख्य, युगबिन्दु (मुखबिम्ब), उद्गीता (प्रोद्गीता), ललित, सिद्ध, सन्तान, नारसिंह (सवोक्त या सवोत्तर), परमेश्वर, किरण और पर (वातुल)।
प्रत्येक आगम के अनेक उपागम हैं, जिनकी संख्या १९८ तक पहुँचती है।
प्राचीनतम आगमों की तिथि का ठीक पता नहीं चलता, किन्तु मध्यकालीन कुछ आगमों की तिथियों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। तमिल कवि तिरमूलर (८०० ई०), सुन्दरी (लगभग ८०० ई०) तथा माणिक्क वाचकर (९०० ई० के लगभग) ने आगमों को उद्धृत किया है । श्री जगदीशचन्द्र चटर्जी का कथन है कि शिवसूत्रा की रचना कश्मीर में वसुगुप्त द्वारा ८५० ई० के लगभग हुई, जिनका उद्देश्य अद्वैत दर्शन के स्थान पर आगमों की द्वैतशिक्षा की स्थापना करना था। इस कथन की पुष्टि मतङ्ग (परमेश्वर-आगम का एक उपागम) एवं स्वायम्भुव द्वारा होती है। नवीं शताब्दी के अन्त के कश्मीरी लेखक सोमानन्द एवं क्षेमराज के अनेक उद्धरणों से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। किरण आगम की प्राचीनतम पाण्डुलिपि ९२४ ई० की है। __आगमों के प्रचलन से शैवों में शाक्त विचारों का उद्भव हुआ है एवं उन्हीं के प्रभाव से उनकी मन्दिरनिर्माण, मूर्तिनिर्माण तथा धार्मिक क्रिया सम्बन्धी नियमावली भी तैयार हुई । मृगेन्द्र आगम (जो कामिक आगम का प्रथम अध्याय है) के प्रथम श्लोक में ही सबका निचोड़ रख दिया गया है : "शिव अनादि हैं, अवगुणों से मुक्त है, सर्वज्ञ है; वे अनन्त आत्माओं के बन्धनजाल काटने वाले हैं । वे क्रमशः एवं एकाएक दोनों प्रकार से सृष्टि कर सकते हैं। उनके पास इस कार्य के लिए एक अमोघ साधन है 'शक्ति', जो चेतन है एवं स्वयं शिव का शरीर है; उनका शरीर सम्पूर्ण 'शक्ति' है।"......''इत्यादि । ___सनातनी हिन्दुओं के तन्त्र जिस प्रकार शिवोक्त हैं उसी प्रकार बौद्धों के तन्त्र या आगम बुद्ध द्वारा वर्णित हैं । बौद्धों के तन्त्र भी संस्कृत भाषा में रचे गये हैं। क्या सनातनी और क्या बौद्ध दोनों ही सम्प्रदायों में तन्त्र अतिगुह्य तत्त्व
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