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कलिसंतरणोपनिषद्-कल्पसूत्रतन्त्र
में शून्यता की प्रधानता होगी। इस प्रकार खरधर्मी मनुष्यों कल्पपादपदान-कल्पवृक्ष की सुवर्णप्रतिमा का दान । के बीच गतप्राय कलियुग में धर्म की रक्षा करने के लिए इसकी गणना महादानों में है। अपने सत्त्व से भगवान् अवतार लेंगे।"
वंगदेशीय वल्लालसेन विरचित दानसागर के महादान
दानावर्त में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। कलिसंतरणोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । इसमें कलि
कल्पवृक्ष-यह वह वृक्ष है जो मनुष्य की सभी कामनाओं से उद्धार पाने का दर्शन प्रतिपादित है, जो केवल भग
की पूर्ति करता है । इसको कल्पतरु भी कहते हैं । वान् के नामों का जप ही है । जप का मुख्य मन्त्र :
जैन विश्वासों के अनुसार विश्व की प्रथम सृष्टि में - हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
मनुष्य युग्म (जोड़े) में उत्पन्न हुए तथा एक जोड़े ने दो __ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
जोड़ों को जन्म दिया, जो आपस में विवाह कर द्विगुणित यही माना गया है।
होते गये । जीविका के लिए ये कोई व्यवसाय नहीं करते कल्प-विश्व की आयु के सम्बन्ध में युग के साथ समय के
थे। दस प्रकार के कल्पतरु थे जो इन मनुष्यों की सभी दो और बृहत् मापों का वर्णन आता है । वे हैं मन्वन्तर
इच्छाओं को पूरा करते थे । एवं कल्प । युग चार हैं-कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि । कल्पतरु एक माङ्गलिक प्रतीक भी है। इन चार युगों का एक महायुग होता है । १००० महा- कल्पवृक्षव्रत-साठ संवत्सर व्रतों में से एक । दे० मत्स्य युग मिलकर एक कल्प बनाते हैं। इस प्रकार कल्प एक पुराण, १०१; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, ४४६ । विश्व की रचना से उसके नाश तक की आयु का कल्पसूत्र-छः वेदाङ्गों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, नाम है।
छन्द और ज्योतिष में कल्प दूसरा अङ्ग है । जिन सूत्रों में कल्प कल्प का अर्थ कल्पसूत्र भी है। कल्प छः वेदाङ्गों में संगृहीत हैं उनको कल्पसूत्र कहते हैं। इनके तीन विभाग से एक है । कौन-सा यज्ञ किसलिए, किस विधि-विधान से हैं-श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी)। प्रथम करना चाहिए यह कल्पसूत्रों के अनुशीलन से ज्ञात हो दो में श्रौत और गृह्य यज्ञों की विस्तृत व्याख्या की गयी सकता है।
है। इनका मुख्य विषय है धार्मिक कर्मकाण्ड का प्रतिकल्कि-भगवान् विष्णु के दस अवतारों में से अन्तिम अव
पादन, यज्ञों का विधान और संस्कारों की व्याख्या । श्रौततार, जो कलियुग के अन्त में होगा। कल्कि-उपपुराण
यज्ञ दो प्रकार के हैं-सोमसंस्था और हविःसंस्था । (अध्याय २, कल्किजन्मोपनयन) में इसका विस्तृत वर्णन
गृह्ययज्ञ को पाकसंस्था कहा गया है। इन तीनों प्रकार पाया जाता है । दे० 'अवतार' ।
के यज्ञों के सात-सात उपप्रकार हैं। सोमसंस्था के प्रकार
हैं-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, कल्किद्वादशी-भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी।
अतिरात्र और आप्तोर्याम । हविःसंस्था के प्रकार है-अग्न्याकल्कि इसके देवता हैं। वाराह पुराण (४८.१.२४) में
धेय, अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य और इसका विस्तृत वर्णन है।
पशुबन्ध । पाकसंस्था के प्रकार है-सायंहोत्र, प्रातर्होत्र, कल्पतरु-एक अद्वैतवेदान्तीय उपटीका ग्रन्थ, जिसका पूर्ण
स्थालीपाक, नवयज्ञ, वैश्वदेव, पितृयज्ञ और अष्टका । सब नाम 'वेदान्तकल्पतरु' है। इसके रचयिता स्वामी अमला
मिलाकर कल्पसूत्रों में ४२ कर्मों का पतिपादन है : १४ नन्द का आविर्भाव दक्षिण भारत में हुआ था । यह ग्रन्थ
श्रौतयज्ञ, ७ गृह्ययज्ञ, ५ महायज्ञ और १६ संस्कारयज्ञ । संवत् १३५४ वि० से पूर्व लिखा जा चुका था । इस ग्रन्थ
परिभाषासूत्र में इनका विस्तृत वर्णन पाया जाता है । वेदमें शांकरभाष्य पर लिखित वाचस्पति मिश्र की 'भामती'
संहिताओं के समान कल्पसूत्रों की संख्या भी ११३० टीका की व्याख्या की गयी है।
होनी चाहिए थी किन्तु इनमें से अधिकांश लुप्त हो गये; इसी प्रकार के उपनाम वाला दूसरा ग्रन्थ 'कृत्यकल्प- संप्रति केवल ४० कल्पसूत्र ही उपलब्ध हैं। दे० 'सूत्र' । तर' धर्मशास्त्र पर मिलता है। इसके रचयिता बारहवीं कल्पसूत्रतन्त्र-एक तन्त्र ग्रन्थ । आगमतत्त्वविलास में शती में उत्पन्न लक्ष्मीधर थे जो गहडवार राजा गोविन्द- उल्लिखित तन्त्रों की तालिका में इस तन्त्र का नाम चन्द्र के सान्धिविग्रहिक (मन्त्रियों में से एक) थे।
आया है।
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