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कल्पादि-कवितावली
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कल्पादि-मत्स्यपुराण में ऐसी सात तिथियों का उल्लेख का अधिक प्रचार था, इसीलिए इसको 'कातन्त्र' (कुत्सित है जिनसे कल्प का प्रारम्भ होता है । उदाहरणतः वैशाख ग्रन्थ) ईर्ष्यावश कहा गया है, अथवा कार्तिकेय के वाहन शुक्ल ३, फाल्गुन कृष्ण ३, चैत्र शुक्ल ५, चैत्र कृष्ण ५ कलापी (मोर पक्षी) ने इसको प्रकट किया था इससे भी (अथवा आमावस्या), माघ शुक्ल १३, कार्तिक शुक्ल ७ इसका 'कातन्त्र' नाम चल पड़ा। और मार्गशीर्ष शुक्ल ९ । दे० हेमाद्रि, कालखण्ड ६७०. कलापी-पाणिनि के सूत्रों में जिन वैयाकरणों का उल्लेख १; निर्णयसिन्ध, ८२; स्मतिकौस्तुभ, ५-६ । ये श्राद्धतिथियाँ किया गया है, उनमें कलापी (४.३.१०४) भी एक हैं । हैं। हेमाद्रि के नागर खण्ड में ३० तिथियाँ ऐसी बतलायी कल्लिनाथ-गान्धर्व वेद (संगीत) के चार आचार्य प्रसिद्ध गयी हैं जैसे कि वे सब कल्पादि हों। मत्स्यपुराण हैं: सोमेश्वर, भरत, हनुमान और कल्लिनाथ । इनमें से (अध्याय २९०.७-११) में ३० कल्पों का उल्लेख है, कइयों के शास्त्रीय ग्रन्थ मिलते हैं। किन्तु वे नागर खण्ड में उल्लिखित कल्पों से भिन्न प्रकार कवच-देवपूजा के प्रमुख पंचाग स्तोत्रों में प्रथम अंग
(अन्य चार अंग अर्गला, कीलक, सहस्रनाम आदि हैं)। कल्पानुपदसूत्र-ऋचाओं को साम में परिणत करने की
स्मार्तों के गृहों में देवी की दक्षिणमार्गी पूजा की सबसे विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं । महत्वपूर्ण स्तुति चण्डीपाठ है जिसे दुर्गासप्तशती भी 'कल्पानुपदसूत्र' भी इनमें से एक सामवेदीय सूत्र है। कहते हैं। इसके पूर्व एवं पीछे दूसरे पवित्र स्तोत्रों का कल्याणसप्तमी-किसी भी रविवार को पड़ने वाली सप्तमी पाठ होता है। ये कवच कीलक एवं अर्गलास्तोत्र हैं, के दिन यह व्रत किया जा सकता है । उस तिथि का नाम जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण से लिये गये हैं । कवच में कल्याणिनी अथवा विजया होगा । एक वर्ष पर्यन्त इसका कुल ५० पद्य हैं तथा कीलक में १४ । इसमें शस्त्ररक्षक अनुष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य के पूजन का विधान लोहकवच के तुल्य ही शरीर के अंगों की रक्षात्मक प्रार्थना है । १३ वें मास में १३ गायों का दान या संमान करना की गयी है। चाहिए। दे० मत्स्यपुराण, ७४.५२०; कृत्यकल्पतरु,
किसी धातु की छोटी डिबिया को भी कवच कहते हैं, व्रतकाण्ड, २०८-२११।
जिसमें भूर्जपत्र पर लिखा हुआ कोई तान्त्रिक यन्त्र या कल्याणश्री (भाष्यकार)-आश्वलायन श्रौतसूत्र के ११ मन्त्र बन्द रहता है । पृथक्-पृथक् देवता तथा उद्देश्य के व्याख्याग्रन्थों का पता लगा है। इनके रचयिताओं में से
पृथक्-पृथक् कवच होते हैं । इसको गले अथवा बाँह में कल्याणश्री भी एक है।
रक्षार्थ बाँधते हैं । मलमासतत्त्व में कहा है : कल्लट-कश्मीर के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक । इनका जीवन- यथा शस्त्रप्रहाराणां कवचं प्रतिवारणम् । काल नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 'काश्मीर शैव तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम् ॥ साहित्यमाला' में प्रसिद्ध 'स्पन्दकारिका' ग्रन्थ की रचना [ जैसे शस्त्र के प्रहार से चर्म अथवा धातु का बना कल्लट द्वारा हुई थी। इसमें स्पन्दवाद (एक शैवसिद्धान्त) हुआ कवच (ढाल) रक्षा करता है, उसी प्रकार दैवी का प्रतिपादन किया गया है ।
आघात से (यान्त्रिक शान्ति) कवच रक्षा करता है ।] कल्हण-कल्हण पण्डित कश्मीर के राजमन्त्रियों में से थे। कवि कर्णपूर-वंगदेशीय भक्त कवि । सन् १५७० के आसइन्होंने 'राजतरङ्गिणी' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की पास बङ्गाल में धार्मिक साहित्य के सर्जन की ओर रचना की है, जिसमें कश्मीर के राजवंशों का इतिहास विद्वानों की अधिक रुचि थी । इसी समय चैतन्य महाप्रभु संस्कृत श्लोकों में वर्णित है । कश्मीर के प्राचीन इतिहास के जीवन पर लगभग पांच विशिष्ट ग्रन्थ लिखे गये; पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है ।।
दो संस्कृत तथा शेष बँगला में। इनमें पहला है संस्कृत कलाप व्याकरण-प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ । इसका प्रचार नाटक 'चैतन्यचन्द्रोदय' जिसकी रचना कवि कर्णपूर ने बङ्गाल की ओर है, इसको 'कातन्त्र व्याकरण' भी कहते की थी। इसमें चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का काव्यमय हैं । कलाप व्याकरण के आधार पर अनेक व्याकरण ग्रन्थ विवेचन है। बने हैं, जो बङ्गाल में प्रचलित हैं । बौद्धों में इस व्याकरण कवितावली-सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कविताबद्ध
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