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कात्यायनश्रौतसूत्र-कान्यकुब्ज (कन्नौज)
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रखा जा सकतारदीपदानाव
इससे बहुत सी धार्मिक क्रियाओं पर प्रचर प्रकाश पड़ता भगवती कात्यायनी की प्रतिमा का पूजन इसलिए किया है । इसके मुख्य विषय है
था कि उन्हें भगवान् कृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों । इसयज्ञोपवीत, आचमन, अङ्गस्पर्श, गणेशपूजा, चतुर्दश लिए धार्मिक आदर्श पति प्राप्त करने के लिए कुमारियाँ मातृपूजा, कुश, श्राद्ध, अग्निसंस्कार, अरणि, मुक्, सुव, और अन्य महिलाएँ भक्तिभाव से इस व्रत का अनुष्ठान स्नान, दन्तधावन, सन्ध्या, प्राणायाम, मन्त्रपाठ, तर्पण,
करती हैं। पञ्चमहायज्ञ, अशौच, स्त्रीधर्म आदि । निश्चित रूप से यह
कातीयगृह्यसूत्र--इसके रचयिता पारस्कर हैं और इसमें तीन कहना कठिन है कि व्यावहारिक (विधिक) और कर्म
काण्ड हैं। इसकी पद्धति वासुदेव ने लिखी है। उस पर काण्डीय कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं। परन्तु यह
जयराम की एक टीका है। शङ्कर गणपति की टीका सत्य है कि बहुत से भाष्यकार और निबन्धकार कर्मप्रदीप
(जिनका प्रसिद्ध नाम रामकृष्ण था) भी बहुत पाण्डित्यपूर्ण के अवतरण कात्यायन के नाम से उद्धृत करते हैं।
है। इसकी भूमिका बड़ी खोज से लिखी गयी है। इन्होंने कात्यायन का काल चतुर्थ और षष्ठ शती ई० के बीच
काण्वशाखा को ही श्रेष्ठ ठहराया है। इनके अतिरिक्त रखा जा सकता है। कात्यायन मनु और याज्ञवल्क्य का
चरक, गदाधर, जयराम, मुरारिमिश्र, रेणुकाचार्य, वागीअनुसरण करते हैं और नारद और बृहस्पति को प्रमाण
श्वरीदत्त और वेदमिश्र आदि के भाष्यों का भी प्रचार है। मानते हैं । अतः कात्यायन इनके परवर्ती हुए। इसलिए
कान्तारदीपदानविधि--आश्विन पूर्णिमा तक बलिदान के
लिए प्रयुक्त होने वाले वृक्ष पर आठ दीपक प्रज्वलित करने तीसरी-चौथी शती के पश्चात् ही इनको रखा जा सकता
चाहिए अथवा तीन रात्रियों (आश्विन अमावस्या और है । विश्वरूप, मेधातिथि आदि निबन्धकार कात्यायन को
पूर्णिमा तथा कात्तिक पूर्णिमा) को अथवा केवल कार्तिक उद्धृत करते हैं। जिससे लगता है कि उनके समय में
पूर्णिमा को ही। इसके देवता हैं धर्म, रुद्र तथा दामोदर । कात्यायनस्मृति प्रसिद्ध और प्रचलित हो चुकी थी। इस- यह पूजाविधि प्रेतों तथा पितरों की तप्ति के लिए है। लिए इन निबन्धकारों से २-३ सौ वर्ष पूर्व ही कात्यायन कान्तिव्रत-कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इसका अनुष्ठान होता का काल माना जा सकता है ।
है। एक वर्ष पर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। कात्यायनश्रौतसूत्र-शुक्ल यजुर्वेद के श्रौतसूत्रों में कात्यायन
इसमें बलराम तथा केशव के पूजन का विधान है। साथ श्रौतसूत्र सबसे प्रसिद्ध है । इसके २६ अध्याय हैं। शत
ही द्वितीया के चन्द्रमा की भी पूजा होती है। कार्तिक पथ ब्राह्मण के पहले नौ काण्डों में जिन सब क्रियाओं का
मास से चार मास तक तिल तथा घी से हवन करना विचार है, कात्यायनश्रौतसूत्र के पहले अठारह अध्यायों ।
चाहिए । वर्ष के अन्त में रजत से निर्मित चन्द्रमा का दान में भी उन्हीं सब क्रियाओं पर विचार किया गया है। करना चाहिए। उन्नीसवें अध्याय में सौत्रामणी, बीसवें में अश्वमेध, इक्की- कान्यकुब्ज (कन्नौज)-इसे अश्वतीर्थ कहा जाता है और सर्वे में पुरुषमेध, पितृ मेध और सर्वमेध, बाईसवें, तेईसवें, एक नाम 'कुशिकतीर्थ' भी है। महर्षि ऋचीक ने यहाँ और चौबीसवें अध्यायों में एकाह, अहीन और सत्र आदि के राजा गाधि की कन्या सत्यवती से विवाह किया था। याज्ञिक क्रियाएं वर्णित है । पचीसवें अध्याय में प्रायश्चित्त गाधि ने पहले इनसे शुल्क रूप में एक सहस्र श्यामकर्ण पर और छब्बीसवें में प्रवर्ग पर विचार है ।
अश्व माँगे, जो ऋषि ने वरुणदेव से कहकर यहीं प्रकट कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं वृत्तिकार हुए कर दिये । गाधि के पुत्र विश्वामित्र हुए और ऋचीक के है । उनमें से यशोगोपी, पितृभूति, कर्क, भर्तृयज्ञ, अनन्त, पुत्र जमदग्नि ऋषि । जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे । यहाँ गङ्गाघर, गदाधर, गर्ग, पद्मनाभ, मिश्र अग्निहोत्री, गौरीशंकर, क्षेमकरी देवी, फूलमती देवी तथा सिंहवाहिनी याज्ञिक देव, श्रीधर, हरिहर और महादेव के नाम विशेष । देवी के मन्दिर है । पहले कन्नौज वैभवपूर्ण नगर रह चुका उल्लेखनीय हैं।
है। गङ्गा इसके पास बहती थी । किन्तु अब धारा कात्यायनीव्रत-भागवत के दशम स्कन्ध के २२वें अध्याय में
चार मील दूर चली गयी है। कन्नौज में अब भी कुछ श्लोक १ से ७ तक इस व्रत का उल्लेख है। कथा यह है कि
प्राचीन अवशेष रह गये हैं। यह स्थान कानपुर से पचास एक बार नन्दवज में कुमारियों ने मार्गशीर्ष मास भर मील पर है।
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