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कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी)
तीन गणों के भेद से कर्म के भी तीन भेद निर्धारित किये गये हैं। इसीलिए गीता में भी कृष्ण ने गुणों के क्रमानुसार त्रिविध यज्ञ, त्रिविध कर्म और विविध कर्ता की व्यवस्था की है।
आसक्तिविहीन, रागद्वेषरहित, वर्णाश्रम के अनुसार किया गया कर्म सात्त्विक; फलासक्ति, अहंकार तथा आशा से अनुष्ठित कर्म राजसिक तथा भावी आपत्ति का ध्यान न करके मोहवश किया गया कर्म तामसिक होता है।
निष्काम कर्मयोगी आसक्तिविहान, धैर्यवान् और उत्साही होता है इसलिए वह सात्त्विक कर्त्ता है। विषयासक्त और फलासक्त, लोभी तथा हर्ष-विषाद से युक्त सकाम कर्ता राजसिक होता है । दूसरों के मानापमान की चिन्ता न करनेवाला, अविवेकी तथा अविनयी, शठ, आलसी
और दीर्घसूत्री कर्ता तामसिक होता है। ___ मनु के अनुसार शारीरिक, मानसिक और वाचनिक सत-असत् कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को फल की प्राप्ति होती है । इनमें उत्तम, मध्यम और अधम गतियाँ कर्म के अवान्तर उपक्रम हैं । इन तीनों प्रकार के कर्मों के निम्नांकित दस लक्षण बताये गये है-परधन हरण की इच्छा, मन में अनिष्ट चिन्तन तथा परलोक का मिथ्यात्व सिद्ध कर शरीर को ही आत्मा मानना; ये तीन मानसिक अशुभ कर्म हैं। वाणी में कटुता, अनृत भाषण, किसी व्यक्ति की परोक्षनिन्दा, असम्बद्ध प्रलाप; ये चार वाचिक अशुभ कर्म हैं। इसके अतिरिक्त न दिये गये धन को हड़प लेना, अवैध हिंसा तथा परस्त्रीगमन; ये तीन शारीरिक अशुभ कर्म हैं।
मन से किये गये सुकर्म या दुष्कर्म का फल मानसिक सुख-दुःख होता है, वाणी के कर्म का फल वाणी से मिलता है तथा शारीरिक कर्मों का परिणाम शारीरिक सुख-दुःख होता है। मनुष्य को शारीरिक अशुभ कर्म से स्थावर योनि, वाणीगत अशुभ कर्म से पशु-पक्षी की योनि तथा मानसिक अशुभ कर्मों से चाण्डाल योनि की प्राप्ति होती है। __ मनुष्य धर्म अधिक और अधर्म कम करने पर स्वर्गलोक में सुख पाता है। इसके विपरीत अधर्म का आधिक्य होने पर निधनोपरान्त यमलोक में यातना पाता है। पाप का फल भोगने पर निष्पाप हो वह पुनः मनुष्यशरीर धारण करता है।
सत्त्व, रज और तम आत्मा के तात्त्विक गुण हैं । संसार के प्रत्येक प्राणी में ये गुण न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध
होते हैं। जिस प्राणो में जिस गुण का आधिक्य होता है उसमें उसी के लक्षण अधिक मिलते हैं। सत्त्वगुण ज्ञानमय है, तमोगुण अज्ञानमय तथा रजोगुण रागद्वेषमय होता है । सत्त्वगुण में प्रति-प्रकाशरूप शान्ति होती है, रजोगुण में आत्मा की अप्रीतिकर दुःखकातरता तथा विषयभोग की लालसा के लक्षण विद्यमान होते हैं। तमोगुण मोहयुक्त, विषयात्मक, अविचार और अज्ञानकोटि में आता है । इसके अतिरिक्त इन गुणों के उत्तम, मध्यम और अधम फल के कुछ अन्य लक्षण भी हैं। यथा सत्त्वगुणी प्रवृत्ति के मनुष्य में वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, शौच, जितेन्द्रियता, धर्मानुष्ठान, परमात्म-चिन्तन के लक्षण मिलते हैं: रजोगुणी प्रवृत्ति के व्यक्ति में सकाम कम में रुचि, अधैर्य, लोकविरुद्ध तथा अशास्त्रीय कर्मों का आचरण तथा अत्यधिक विषयभोग के लक्षण मिलते हैं । तमोगुणी व्यक्ति लोभी, आलसी, अधीर, क्रूर, नास्तिक, आचारभ्रष्ट, याचक तथा प्रमादी होता है।
अतीत, वर्तमान और आगमी के क्रमानुसार भी सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के शास्त्रों में लक्षण बताये गये हैं। जो कार्य पहले किया गया हो, अब भी किया जा रहा हो पर जिसे आगे करने में लज्जा का अनुभव हो उसे तमोगुणी कर्म कहते हैं। लोकप्रसिद्धि के लिए जो कर्म किये जाते हैं उनके सिद्ध न होने पर मनुष्य को दुःख होता है, इन्हें रजोगुणी कर्म कहते हैं। जिस कार्य को करने की मनुष्य में सदा इच्छा बनी रहे और वह सन्तोषदायक हो तथा जिसे करने में ममष्य को किसी प्रकार की लज्जा की अनुभूति न हो उसे सत्त्वगुणी कर्म कहा जाता है । प्रवृत्ति के विचार से तमोगुण काममूलक, रजोगुण अर्थमूलक तथा सत्त्वगुण धर्ममूलक होता है। सत्त्वगणसम्पन्न व्यक्ति देवत्व को, रजोगणी मनुष्यत्व को तथा तमोगुणी तिर्यक् योनियों को प्राप्त होते हैं।
उपर्युक्त तीन गतियाँ भी कर्म और ज्ञान के भेद से तीन-तीन प्रकार की हैं; जैसे अधम सात्त्विक, मध्यम सात्त्विक, उत्तम सात्विक; अधम राजसिक, मध्यम राजसिक, उत्तम राजसिक; अधम तामसिक, मध्यम तामसिक, उत्तम तामसिक आदि ।
मनु के अनुसार इन्द्रियगत कार्यों में अतिशय आसक्ति तथा धर्मभावना के अभाव में मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है। जिस विषय की ओर इन्द्रियों का अधिक झुकाव होता है उसी में उत्तरोत्तर आसक्ति बढ़ती जाती है ।
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