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कला-कलियुग
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करना चाहिए। इसके पश्चात् नानाविधि से दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । पहले स्थापित कलसों में नवग्रहों की और मातृघटों में मातृकाओं की पूजा करनी चाहिए। घट में सभी देवताओं की पृथक्-पृथक् पूजा होती है। मुख्यतया पूर्वोक्त नव देवताओं की । भक्ष्य, माल्य, पेय, पुष्प, फल, यावक, पायस आदि यथासम्भव आयोजनों से राजा को सभी देवताओं का पूजन करना चाहिए। कला-शिव की शक्ति का एक रूप । शिव द्वारा विश्व की क्रमिक सृष्टि अथवा विकास की प्रक्रिया का ही नाम कला है । सभी कलाओं में शक्ति की अभिव्यक्ति है। शैव तन्त्रों में चौसठ कलाओं का उल्लेख पाया जाता है । उनकी सूची निम्नांकित है : १. गीत
२७. धातुवाद २. वाद्य
२८. मणिरागज्ञान ३. नृत्य
२९. आकरज्ञान ४. नाट्य
३०. वृक्षायुर्वेदयोग ५. आलेख्य
३१. मेष-कुक्कुट-लावक-युद्ध ६. विशेषकच्छेद्य ३२. शुकसारिकाप्रलापन ७. तण्डुलकुसुमबलिविकार ३३. उदकघात ८. पुष्पास्तरण
३४. चित्रायोग ९. दशन-वसनाङ्गराग ३५. माल्यग्रथनविकल्प १०. मणिभूमिका कर्म ३६. शेखरापीडयोजन ११. शयनरचना
३७. नेपथ्यायोग १२. उदकवाद्यम् ३८. कर्णपत्रभङ्ग १३. पानकरसरागासवयोजन ३९. गन्धयुक्ति १४. सुचीवापकर्म ४०. भूषणयोजन १५. सूत्रक्रीडा
४१. ऐन्द्रजाल १६. प्रहेलिका
४२. कौचुमारयोग १७. प्रतिमाला
४३. हस्तलाघव १८. दुर्वचकयोग ४४. चित्रशाक-पूप-भक्ष्य१९. पुस्तकवाचन
विकल्पक्रिया २०. नाटिकाख्यायिकादर्शन ४५. केशमार्जनकौशल २१. काव्यसमस्यापूरण ४६. अक्षरमुष्टिकाकथन २२. पट्टिका-वेत्र-बाण-विकल्प ४७. म्लेच्छित-कविकर्म २३. तर्क-कर्म
४८. देशभाषाज्ञान २४. तक्षण
४९. पुष्पशकटिकाःनिमित्र-ज्ञान २५. वास्तुविद्या
५०. यन्त्रमातृका २६. रूयान्तरपरीक्षा ५१. धारणमातृका
५२. सम्पाठय
५९. आकर्षक्रीडा ५३. मानसीकाव्य क्रिया ६०. बालकक्रीडन ५४. क्रियाविकल्प
६१. वैनायिकीविद्याज्ञान ५५. छलितकयोग
६२. वैजयिकीविद्याज्ञान ५६. अभिधानकोषछन्दोज्ञान ६३. वैतालिकीविद्याज्ञान ५७. वस्त्रगोपन
६४. उत्सादन ५८. द्यूतविशेष
भागवत की श्रीधरी टीका में भी इन कलाओं की सूची दी गयी है।
कला का एक अर्थ जिह्वा भी है। हठयोगप्रदीपिका (३.३७ ) में कथन है :
कलां पराङ्मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत् । [जिह्वा को उलटी करके तीन नाडियों के मार्ग कपालगह्वर में लगाना चाहिए ।] __ आकार या शक्ति का माप भी कला कहा जाता है, यथा चन्द्रमा की पंद्रहवीं कला, सोलह कला का अवतार (षोडशकलोऽयं पुरुषः । ) । राशि के तीसवें अंश के साठवें भाग को भी कला कहते हैं। कलानिधितन्त्र-एक मिश्रित तन्त्र । मिश्रित तन्त्रों में देवी की उपासना दो लाभों के लिए बतायी गयी है; पार्थिव सुख तथा मोक्ष, जबकि शुद्ध तन्त्र केवल मोक्ष के लिए मार्ग दर्शाते है । 'कलानिधितन्त्र' में कलाओं के माध्यम से तान्त्रिक साधना का मार्ग बतलाया गया है। कलि-यह शब्द ऋग्वेद में अश्विनों द्वारा रक्षित किसी व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में कलि ( बहुवचन ) का प्रयोग गन्धों के वर्णन के साथ हुआ है। विवाद, कलह; बहेड़े के वृक्ष और कलियुग के स्वामी असुर का नाम भी कलि है। कलियुग-विश्व की आयु के सम्बन्ध में हिन्दू सिद्धान्त तीन प्रकार के समयविभाग उपस्थित करता है । वे हैंयुग, मन्वन्तर एवं कल्प। युग चार है--कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि । ये प्राचीनोक्त स्वर्ण, रूपा, पीतल एवं लौह युग के समानार्थक हैं। उपर्युक्त नाम जुए के पासे के पक्षों के आधार पर रखे गये हैं। कृत सबसे भाग्यवान् माना जाता है जिसके पक्षों पर चार बिन्दु हैं, त्रेता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि पर मात्र एक बिन्दु है । ये ही सब सिद्धान्त युगों के गुण एवं आयु पर भी घटते हैं । क्रमशः इन युगों में मनुष्य के अच्छे गुणों का
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