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है । बीच-बीच में कालानुसार बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने करण - ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके इसकी कालविषमता को ठीक कर रखा है । करण ग्रन्थों के द्वारा ज्योतिष में बराबर संशोधन होते चले आये हैं । संप्रति मकरन्दीय ग्रहलाघव जैसे करण ग्रन्थ अधिक प्रचलित है। करम्भ - जौ के सत्तू को दही में मिलाकर बनाया गया एक होमद्रव्य । यह कृषि के देवता पूषा का प्रिय यज्ञभाग है । दक्षयज्ञध्वंस के समय वीरभद्र ने पूषा के दाँत तोड़ दिये थे, तब से वे कोमल पिष्ट (करम्भ ) की हवि ग्रहण करते हैं । करम्भ जुआर आदि से भी बनाया जाता है । करविन्दस्वामी - आपस्तम्ब शुल्वसूत्र के ये एक भाष्यकार हुए हैं।
करवीरप्रतिपदावत ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । किसी देवालय के उद्यान में खड़े हुए करवीर वृक्ष का पूजन करना चाहिए। तमिलनाडु में यह व्रत वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है । कलश -- धार्मिक कृत्यों में कलश की स्थापना एक महत्त्व - पूर्ण कर्तव्य है । इसमें वरुण की पूजा होती है । विवाह, मूर्तिस्थापना, जयप्रयाण, राज्याभिषेक आदि के समय एक कलश अथवा कई कलशों की अथवा अधिक से अधिक १०८ कलशों की स्थापना की जाती है । कलश की परिधि १५ अंगुल से ५० अंगुल तक ऊँचाई १६ अंगुल तक तली १२ अंगुल और मुँह ८ अंगुल चौड़ा होना चाहिए। हेमाद्रि, व्रतखण्ड १.६०८ में इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी हुई है : कलां कलां गृहीत्वा च देवानां विश्वकर्मणा । निर्मितोऽयं सुरैर्यस्मात् कलवास्तेन उच्यते || ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में 'पात्र' या 'घट' के लिए व्यवहृत शब्द 'कलश' था, जो कच्ची या पक्की मिट्टी का बना होता था। दोनों प्रकार के पात्र व्यवहार में आते थे। सोमरस के काष्ठनिर्मित द्रोणकलश का उल्लेख प्रायः यज्ञों में हुआ है।
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कलस — इसकी व्युत्पत्ति 'क (जल) से लस सुशोभित होता है' (केन लसतीति) की गयी है। कालिकापुराण (पुष्याभिषेक, अध्याय ८७ ) में इसकी उत्पत्ति और धार्मिक माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है
" देवता और असुरों द्वारा अमृत के लिए जब सागर का मन्थन हो रहा था तो अमृत (पीयूष ) के धारणार्थ विश्वकर्मा ने कलस का निर्माण किया। देवताओं की
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पृथक्-पृथक् कलाओं को एक करके यह बना था, इस लिए कलस कहलाया । नव कलस हैं, जिनके नाम हैं। गोह्य, उपगो, मरुत्, मयूख, मनोहा, कृषिभद्र, तनुशोधक, इन्द्रियप्न और विजय हे राजन्, इन नामों के क्रमश: नौ नाम और है उनको सुनो, जो सदैव शान्ति देने वाले हैं। प्रथम क्षितीन्द्र, द्वितीय जलसम्भव तीसरा पवन, चौथा अग्नि, पांचवां यजमान छठा कोशसम्भव, सातवाँ सोम, आठवाँ आदित्य और नवाँ विजय । कलस को पञ्चमुख भी कहा गया है, वह महादेव के स्वरूप को धारण करनेवाला है। कलस के पांच मुलों में पञ्चानन महादेव स्वयं निवास करते हैं, इसलिए सम्यक् प्रकार से वामदेव आदि नामों से मण्डल के पद्मासन में पञ्चवक्त्रघट का न्यास करना चाहिए । क्षितीन्द्र को पूर्व में, जलसम्भव को पश्चिम में पवन को वायव्य में, अग्निसम्भव को अग्निकोण में, यजमान को नैऋत्य में, कोशसम्भव को ईशान में सोम को उत्तर में और आदित्य को दक्षिण में रखना चाहिए। कलस के मुख में ब्रह्मा और ग्रीवा में शङ्कर स्थित हैं । मूल में विष्णु और मध्य में मातृगण का निवास है। दिक्पाल देवता दसों दिशाओं से इसका मध्य में वेष्टन करते हैं और उदर में सप्तसागर तथा सप्त द्वीप स्थित हैं । नक्षत्र, ग्रह, सभी कुलपर्वत, गङ्गा आदि नदियाँ, चार वेद, सभी कलस में स्थित है। कलस में इनका चिन्तन करना चाहिए रत्न, सभी बीज, पुष्प, फल, वज्र, मौक्तिक, वैदूर्य, महापद्म, इन्द्रस्फटिक, बिल्व, नागर, उदुम्बर, बीजपूरक, जम्बीर, आम्र, आम्लातक, दाडिम, यव, शालि, नीवार, गोधूम, सित सर्षप, कुंकुम, अगुरु, कर्पूर, मदन, रोचन, चन्दन, मांसी, एला, कुष्ठ, कर्पूरपत्र, चण्ड, जल, निर्यासक, अम्बुज, शैलेय, बदर, जाती, पत्रपुष्य, कालशाक, पृक्का, देवी, पर्णक, वच, धात्री मज्जिष्ठ, तुरुक, मङ्गलाष्टक, दूर्वा, मोहनिका, भद्रा, शतमूली, शतावरी, पर्णी में शवल, क्षुद्रा, सहदेवी, गजाङ्कश, पूर्णकोषा, सिता, पाठा, गुज्जा, सुरसी, कालस, व्यामक, गजदन्त शतपुष्पा, पुनर्णवा, ब्राह्मी, देवी, सिता, रुद्रा और सर्वसन्धानिका, इन सभी शुभ वस्तुओं को लाकर फलस में निधापन करना चाहिए । कलस के देवता विधि, शम्भु, गदाधर (विष्णु) का यथाक्रम पूजन करना चाहिए। विशेष करके शम्भु का । प्रासादमण और शम्भुतम् से वार का प्रथम पूजन
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करम्भ - कलस
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