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कर्ममीमांसा - कर्मयोग
इससे मनुष्य का वर्तमान लोक तो बिगड़ता ही है परलोक में भी अति दुःख और नरकपीड़ा का अनुभव करना पड़ता है, निम्न कोटि की योनियों में पुनः जन्म होता है। और अपार यातना सहनी पड़ती है। जिन भावनाओं से जो-जो कर्म किये जाते हैं उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करके कष्ट भोगना पड़ता है। संक्षेप में प्रवृत्तिमार्गी कम के यही परिणाम हैं।
निवृत्तिमार्गी कर्मों के विचार से वेदाध्ययन, तप, ज्ञान, अहिंसा और गुरुसेवा आदि कर्म मोक्ष के साधक हैं । इनमें आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है । यही मुक्ति का सर्वप्रथम साधन है ऊपर बताये गये सभी कर्म वेदाध्ययन या वेदाभ्यास के अन्तर्गत समाविष्ट है। वैदिक कर्म मूलतः दो तरह के है प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक परलोकसुखकामना से कृत कर्म प्रवृत्तिमूलक तथा ज्ञानार्जन के प्रयोजन से कृत निष्काम कर्म निवृत्तिमूलक है। प्रवृत्तिमूलक कर्म का सम्यक् अनुष्ठान मनुष्य को देवयोनि में प्रवेश दिलाता है और निवृत्तिमूलक कर्म से निर्वाण (मोक्ष) मिलता है। आत्मज्ञान सर्वभूतों में आत्मा को तथा आत्मा में सर्वभूतों को देखता है, इससे उसे ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है । यही कर्मयज्ञ की पूर्णता है ।
कर्ममीमांसा — पूर्व मीमांसा' को ही कर्ममीमांसा कहते हैं। इसका उद्देश्य है धर्म के विषय में निश्चय को प्राप्त करना अथवा सभी धार्मिक कर्त्तव्यों को बताना । किन्तु वास्तव में यज्ञकर्मी की विवेचना ने इसमें इतना अधिक महत्त्व प्राप्त किया है कि दूसरे कर्म उसकी ओट में छिप जाते हैं । ऋचाओं तथा ब्राह्मणों में सभी आवश्यक निर्देश है. किन्तु वे नियमित नहीं है इस कारण पुरोहित को यज्ञों के अनुष्ठान में नाना कठिनाइयाँ पड़ती हैं । मीमांसा ने इन समस्याओं के समाधान के लिए अपने सिद्धान्त उप' स्थित किये तथा वैदिक संहिताओं के समझने में निर्देशक कार्य किया है ।
वेदों में बताये गये यज्ञों के बहुत से फल कहे गये हैं, किन्तु वे कार्य के साथ ही तुरन्त नहीं देखे जा सकते । इसलिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि यज्ञ से 'अपूर्व ' फल प्राप्त होता है, जो अदृश्य है और जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है और जो समय आने पर कहे गये फल को देगा 1 २१
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पूर्व मीमांसा अध्यात्म मार्ग की शिक्षा नहीं देती, फिर भी किसी-किसी स्थान पर उसमें आध्यात्मिक विचार आ ही गये हैं। ईश्वर की सत्ता का विरोध यहाँ इस आधार पर हुआ है कि एक सर्वज्ञ की धारणा नहीं की जा सकती। विश्व की प्रामाणिक अनुभवगत धारणा यहाँ उपस्थित हुई है। सृष्टि की अनन्तता को वस्तुओं के नाश एवं पुनः उत्पत्ति के विश्वास की भूमिका में समझा गया है एवं कर्म के सिद्धान्त पर इतना जोर दिया गया है कि आवागमन से मुक्ति पाना कठिन ही जान पड़ता है ।
यह चिन्तनप्रणाली वैदिक याज्ञिकों, पुरोहितों की सहायता के लिए स्थापित हुई। आज भी यह गृहस्यों के दैनन्दिन जीवन में निर्देशक का कार्य करती है। वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान यह संन्यास की शिक्षा नहीं देती और न संन्यासियों से इसका सम्बन्ध ही रहा है । कर्मयोग - भारतीय जीवन के तीन मार्ग माने गये हैं - ( १ ) कर्ममार्ग, (२) ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग | इन्हीं तीनों को क्रमशः कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कहते हैं । वास्तव में ये समानान्तर नहीं, किन्तु समवेत मार्ग हैं | पूर्ण जीवन के लिए तीनों का समन्वय आवश्यक है । कर्ममार्ग के विरुद्ध कर्मसंन्यासियों का सबसे बड़ा आक्षेप यह था कि कर्म से बन्धन होता है; अतः मोक्ष के लिए कर्मसंन्यास आवश्यक है | भगवद्गीता में यह मत प्रतिपादित किया गया कि जीवन में कर्म का त्याग असम्भव है। कर्म से केवल बन्ध का वंश तोड़ देना चाहिए जो कर्म ज्ञानपूर्वक भक्तिभाव से अनासक्ति के साथ किया जाता है। उससे बन्ध नहीं होता। इसमें तीनों मार्गों का समुच्चय और समन्वय है। इसी को गीता में कर्मयोग कहा गया है । इसका प्रतिपादन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है (गीता, ३.३ ९ ) :
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ||३|| न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति ||४||
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५॥ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्यान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||६||
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