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ऋणमोचनतीर्थ-ऋत्विक् (ऋत्विज)
रचनाकार हैं प्रभाकरशिष्य शालिकनाथ पण्डित ।
जीवन निर्वाह कर ले, किन्तु कुत्ते की वृत्ति (नौकरी ऋणमोचनतीर्थ–सहारनपुर-अम्बाला के बीच जगाधरी के आदि) से कभी भी जीवन-यापन न करे। समीप एक पुण्यस्थान । यहाँ भीष्मपञ्चमी को मेला लगता शिल-उच्छ को ऋत, भिक्षा न माँगने को अमृत, है। 'ऋणमोचन तीर्थ' नामक सरोवर है। इसमें स्नान भीख मांगने को मृत, हल जोतने को प्रमृत कहा गया है। करने के लिए दूर-दूर से यात्री आते हैं। यह सरोवर ऋतधामा-जिसका सत्य धाम (तेज) है; अग्नि, विष्णु, जंगल में है।
एक भावी इन्द्र । यजुर्वेद (५.३२) में कथन है : ऋत-स्वाभाविक व्यवस्था, भौतिक एवं आध्यात्मिक
'हव्यसूदन ऋतधामासि स्वतिः ।' निश्चित दैवी नियम । यह विधि, जिसे 'ऋत' कहते हैं,
ऋतधामा रुद्रसावणि मनु के काल में इन्द्र होगा; यह अति प्राचीन काल में व्यवस्थित हई थी। ऋत का
भागवत (८.१३.२८) में कहा गया है : पालन सभी देवता, प्रकृति आदि नियमपूर्वक करते हैं ।
भविता रुद्रसावणिः राजन् द्वादशमो मनुः । ईरानी भाषा में यह नियम १६०० ई० पू० 'अर्त' के
ऋतधामा च देवेन्द्रो देवाश्च हरितादयः ।। नाम से और अवेस्ता में 'अश' के नाम से पुकारा जाता था। ऋत्विक् (ऋत्विज्)-जो ऋतु में यज्ञ करता है, याज्ञिक. ऋत की सभी शक्तियों को धारण करने वाला देवता पुरोहित । मनु (२.१४३) में कथन है : वरुण है (ऋ० ५.८५.७) । प्रकृति के सभी उपादान उसके अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान् । विषय हैं एवं वह देखता है कि मनुष्य उसके नियमों का यः करोति वृतो यस्य स तत्विगिहोच्यते ।। पालन करते है या नहीं । वह नैतिकों को पुरस्कार एवं [अग्नि की स्थापना, पाकयज्ञ, अग्निष्टोम आदि यज्ञ अनंतिकों को दण्ड देता है । वरुण के अतिरिक्त अन्य देव
जो यजमान के लिए करता है वह उसका ऋत्विक् कहा ताओं का भी ऋत से सम्बन्ध है । उसी के माध्यम से जाता है । ] उसके पर्याय हैं-(१) याजक, (२) भरत, देवगण अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं।
(३) कुरु, (४) वाग्यत, (५) वृक्तवहिष, (६) यतश्रुच, ऋत के तीन क्षेत्र हैं-(१) विश्वव्यवस्था, जिसके (७) मरुत्, (८) सबाध और (९) देवयव ।। द्वारा ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपने क्षेत्र में नियमित रूप
यज्ञकार्य में योगदान करने वाले सभी पुरोहित ब्राह्मण से कार्य करते हैं, (२) नैतिक नियम, जिसके अनुसार
होते हैं। पुरातन श्रौत यज्ञों में कार्य करने वालों की व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का निर्वाह होता है। (३)
निश्चित संख्या सात होती थी। ऋग्वेद की एक पुरानी कर्मकाण्डीय व्यवस्था, जिसके अन्तर्गत धार्मिक क्रियाओं
तालिका में इन्हें होता, पोता, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रशास्ता, के विधि-निषेध, कार्यपद्धति आदि आते हैं। दे० ऋग्वेद,
अध्वर्यु और ब्रह्मा कहा गया है। सातों में प्रधान १. २४. ७-८-१०; ७.८६.१; ७. ८७.१-२ । सृष्टि
'होता' माना जाता था जो ऋचाओं का गान करता था। प्रक्रिया में बतलाया गया है कि तप से ऋत और सत्य वह प्रारम्भिक काल में ऋचाओं की रचना भी (ऊह उत्पन्न हुए; फिर इनसे क्रमश रात्रि, समुद्र, अर्णव, संवत्सर,
विधि से) करता था। अध्वर्य सभी यज्ञकार्य (हाथ से सूर्य, चन्द्र आदि उत्पन्न हुए।
किये जाने वाले) करता था। उसकी सहायता मुख्य रूप से फसल कटने के बाद खेत में पड़ी हुई बालियों के आग्नीध्र करता था, ये हो दोनों छोटे यज्ञों को स्वतन्त्र रूप दानों को चुनने वाली उञ्छवृत्ति को भी ऋत कहते हैं । से कराते थे। प्रशास्ता जिसे उपवक्ता तथा मैत्रावरुण भी मनुस्मृति (४.४.५) में कहा है :
कहते हैं, केवल बड़े यज्ञों में भाग लेता था और होता को ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा । परामर्श दता था। कुछ प्रार्थनाएँ इसके अधीन होती थीं। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन ।। पोता, नेष्टा एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध सोमयज्ञों से था। ऋतमुञ्छशिलं जेयममृतं स्यादयाचितम् ।
बाद में ब्रह्मा को ब्राह्मणाच्छंसी कहने लगे जो यज्ञों में मृतन्तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ निरीक्षक का कार्य करने लगा। [ ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत, सत्य-अनृत इनके द्वारा ऋग्वेद में वर्णित दूसरे पुरोहित साम गान करते थे ।
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