________________
कर्काचार्य-कर्मकाण्ड
१५५
कर्काचार्य-आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के भाष्यकार । इन्होंने कात्यायनसूत्र एवं पारस्कररचित गृह्यसूत्र पर भी भाष्य लिखा है। करकाष्टमी-कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। रात्रि को गौरीपूजन का विधान है। इसमें सुवासित जल से परिपूर्ण, मालाओं से परिवृत नौ कलशों का दान करना चाहिए । नौ कन्याओं को भोजन कराकर व्रती को भोजन करना चाहिए। यह व्रत महाराष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध है। कर्तभज-हिन्दू-मुस्लिमवाद से मिश्रित एक उपासनामार्गी समुदाय । इसकी शिक्षा एवं नैतिकता सन्देहात्मक है। इस पर इस्लाम का प्रभाव भी परिलक्षित होता है तथा इसके अनुयायी अपना सम्बन्ध चैतन्य से जोड़ते हैं। कर्म-वैशेषिक दर्शन में इसका साधारण अर्थ क्रिया, गति, अथवा काम है । अन्य दर्शनों में यह एक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसको आत्मा संसार में वहन करता है । मनुष्य के मानस में यह संस्कार रूप से कार्य करता रहता है । इसका प्रयोग कार्य-कारण सम्बन्ध के अर्थ में भी होता है। इसी से शुभाशुभ कर्मफल उत्पन्न होता है। इसी के
माना इसके तीन प्रकार है-(१) प्रारब्ध, (२) सञ्चित और
र (३) क्रियमाण। प्रारब्ध वह है जो वर्तमान जीवन को चला रहा है और जिसका फल भोगना अनिवार्य है। सञ्चित वह है जो पहले से एकत्रित जमा है और प्रायश्चित्त से दूर किया जा सकता है, अथवा ज्ञान से जिसका निराकरण हो सकता है। क्रियमाण वह है जो वर्तमान में किया जाता है, जिसका फल साथ ही उत्पन्न होता जाता है और जो भविष्य का निर्धारण करता है।
भक्ति सम्प्रदायों में यह विश्वास है कि भगवान् की दया, अनुग्रह अथवा प्रसाद से सब तरह के कर्मफल समूल कभी भी नष्ट हो सकते हैं। कर्मवाद-आवागमन तथा कर्म का सिद्धान्त सर्वप्रथम भली भांति ब्राह्मण ग्रन्थों में स्थापित किया गया है । फिर भी उपनिषदों में ही प्रथम बार इसका सम्बन्ध नैतिक कार्य- कारण के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत हआ है । इस प्रकार इस गुरुतम सिद्धान्त की सृष्टि आर्यों की ही देन है । किन्तु कुछ विद्वानों का विश्वास है कि आदिम जातियाँ ही, जो
यह विश्वास करती थीं कि मरने के बाद उनका आत्मा पशुशरीर में निवास करता है, उक्त सिद्धान्त को चलाने वाली है। यह बात अंशतः सत्य हो सकती है, क्योंकि आर्य लोग दैनिक जीवन में इनके संपर्क में रहते थे तथा धीरे-धीरे आयों ने इनसे सम्बन्ध भी आरम्भ कर दिया था। इनसे आर्येतरों ने वैज्ञानिक कार्य-कारण-सिद्धान्त 'कर्म' को सहज ही स्वीकार कर अपनी ओर से सामान्य लोगों में फैला दिया। ___इस सिद्धान्त के अनुसार कारण और कार्य में प्रकृत सम्बन्ध है । कारण के अनुसार ही कार्य होता है । जीवात्मा अपने कर्म के अनुसार बार-बार जन्म ग्रहण करता एवं मरता है। मनुष्य का इस जन्म का चरित्र उसके दूसरे जन्म की अवस्थाओं का निर्णायक होता है । अच्छे चरित्र का सत्फल एवं बुरे का दण्ड मिलता है। दे० छान्दोग्य उप० ५.१०.७)।
काम के अर्थ में 'कर्म' शब्द एक अद्भुत शक्ति है जो सभी कर्मों को दूसरे जन्म के फल या कर्म के रूप में परिवर्तित कर कर देती है । इस सिद्धान्त का विकास होते होतं निश्चित हुआ कि मनुष्य का मन, शरीर एवं चरित्र तथा उसके अनुभव उसके आगामी जन्म के कारणतत्त्व है। मनुष्य ने यह भी जाना कि जीवन पिछले कर्मों का फल है तथा एक जन्म के कर्म दूसरे जन्म में अच्छे फल एवं दण्ड की योजना करते हैं । इस प्रकार जन्म एवं मरण या संसार का आदि तथा अन्त नहीं है। इसी कारण आत्मा को आदि-अन्त रहित माना गया है।
किन्तु कर्म का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। मनुष्य केवल अतीत के कर्मफल से बद्ध है। वर्तमान में उसे अपने कर्मों के चुनाव में स्वातंत्र्य है। इसके द्वारा वह अपने भविष्य का निर्माण करने वाला है । भक्तों में तो यह भी विश्वास है कि भगवत्कृपा से अतीत के कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। कर्मकाण्ड-(१) सम्पूर्ण वैदिक धर्म तीन काण्डों में विभक्त है-(१) ज्ञान काण्ड, (२) उपासना काण्ड और (३) कर्म काण्ड । कर्मकाण्ड का मूलतः सम्बन्ध मानव के सभी प्रकार के कर्मों से है, जिनमें धार्मिक क्रियाएँ भी सम्मिलित है । स्थूल रूप से धार्मिक क्रियाओं को ही 'कर्मकाण्ड' कहते हैं, जिससे पौरोहित्य का घना सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड के भी दो प्रकार है-(१) इष्ट और (२) पूर्त । यज्ञ-यागादि, अदृष्ट और अपूर्व के ऊपर आधारित कर्मों को इष्ट कहते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org