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कबीरपंथी-करकचतुर्थी (करवाचौथ)
को इन्होंने बार-बार गाया है । ये उपनिषदों के निर्गुण कबीरपंथ धार्मिक साधना और विचारधारा के रूप में ब्रह्म को मानते थे और साफ कहते थे कि वही शुद्ध ईश्वर है । अपने सामाजिक तथा व्यापक धार्मिक जीवन में वे है चाहे उसे राम कहो या अल्ला । ऐसी दशा में इनकी पूर्ण हिन्दू है । कबीरपंथी विरक्त साधु भी होते हैं। वे शिक्षाओं का प्रभाव शिष्यों द्वारा परिवर्तन से उलटा नहीं। हार अथवा माला (तुलसी काष्ठ की) पहनते हैं तथा जा सकता था। थोड़ा सा उलट-पुलट करने से केवल ललाट पर विष्णु का चिह्न अंकित करते हैं। इस प्रकार इतना फल हो सकता है कि रामनाम अधिक न होकर इस पंथ के भ्रमणशील या पर्यटक साधु उत्तर भारत में सत्यनाम अधिक हो। यह निश्चित बात है कि ये रामनाम सर्वत्र पर्याप्त संख्या में पाये जाते हैं। ये अपने सामान्य, और सत्यनाम दोनों को भजनों में रखते थे। प्रतिमापूजन सरल एवं पवित्र जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं। इन्होंने निन्दनीय माना है । अवतारों का विचार इन्होंने कमलषष्ठी-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी से सप्तमी त्याज्य बताया है । दो-चार स्थानों पर कुछ ऐसे शब्द हैं, तक मनाया जाता और प्रतिमास एक वर्ष पर्यन्त चलता जिनसे अवतार महिमा व्यक्त होती है ।
है । ब्रह्मा इसके देवता हैं । पञ्चमी के दिन व्रत के नियम __ कबीर के मुख्य विचार उनके ग्रन्थों में सूर्यवत् चमक प्रारम्भ होते है। षष्ठी को उपवास करना चाहिए। रहे हैं, किन्तु उनसे यह नहीं जान पड़ता कि आवागमन शर्करा से भरे सुवर्णकमल ब्रह्मा को चढ़ाने चाहिए। सिद्धान्त पर वे हिन्दूमत को मानते थे या मुसलमानी सप्तमी के दिन ब्रह्मा की प्रतिष्ठा करते हुए उन्हें खीर का मत को । अन्य बातों पर कोई वास्तविक विरोध कबीर भोग लगाना चाहिए। वर्ष के बारह महीनों में ब्रह्माजी की शिक्षाओं में नहीं दीख पड़ता। कबीर साहब के बहुत की भिन्न-भिन्न नामों से पूजा करनी चाहिए। दे० भविसे शिष्य उनके जीवन काल में ही हो गये थे। भारत में ष्योत्तरपुराण, ३९ । अब भी आठ-नौ लाख मनुष्य कबीरपंथी हैं। इनमें कमलसप्तमी-यह व्रत चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ होकर मुसलमान थोड़े ही है और हिन्दू बहुत अधिक । कबीर- एक वर्ष तक प्रतिमास चलता है। दिवाकर (सूर्य) इसके पंथी कण्ठी पहनते हैं, बीजक, रमैनी आदि ग्रन्थों के प्रति देवता हैं। दे० मत्स्यपुराण, ७८.१-११।। पूज्य भाव रखते हैं । गुरु को सर्वोपरि मानते हैं। कमला-दस महाविद्याओं में से एक । दक्षिण और वाम
निर्गुण-निराकारवादी कबीरपंथ के प्रभाव से ही अनेक दोनों मार्ग वाले दसों महाविद्याओं की उपासना करते निर्गुणमार्गी पंथ चल निकले । यथा-नानकपंथ पञ्जाब में, हैं। कमला इनमें से एक है । उसके अधिष्ठाता का नाम दादूपंथ जयपुर (राजस्थान) में, लालदासी अलवर में, 'सदाशिव विष्णु' है। 'शाक्तप्रमोद' में इन दसों महासत्यनामी नारनौल में, बाबालाली सरहिन्द में, साधपंथ विद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, दिल्ली के पास, शिवनारायणी गाजीपुर में, गरीबदासी
ध्यान एवं उपासनाविधि वर्णित हैं।। रोहतक में, मलूकदासी कड़ा (प्रयाग) में, रामसनेही ।
कमलाकर-भारतीय ज्योतिर्विदों में आर्यभट, वराहमिहिर, (राजस्थान) में । कबीरपंथ को मिलाकर इन ग्यारहों में
ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, कमलाकर आदि प्रसिद्ध ग्रन्थकार समान रूप से अकेले निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना
हए हैं । ये सभी फलित एवं गणित ज्योतिष के आचार्य की जाती है । मूर्तिपूजा वर्जित है, उपासना और पूजा का
माने जाते हैं । भारतीय गणित ज्योतिष के विकास में काम किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है । गुरु की
कमलाकर भट्ट का स्थान उल्लेखनीय है ।। उपासना पर बड़ा जोर दिया जाता है । इन सबका पूरा
करकचतुर्थी (करवाचौथ)-केवल महिलाओं के लिए इसका साहित्य हिन्दी भाषा में है। रामनाम, सत्यनाम अथवा
विधान है। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को इसका अनुष्ठान शब्द का जप और योग इनका विशेष साधन है । व्यवहार
होता है। एक वटवृक्ष के नीचे शिव, पार्वती, गणेश तथा में बहुत से कबीरपंथी बहुदेववाद, कर्म, जन्मान्तर और
स्कन्द की प्रतिकृति बनाकर षोडशोपचार के साथ पूजन तीर्थ इत्यादि भी मानते हैं।
किया जाता है। दस करक (कलश) दान दिये जाते हैं। कबीरपंथी-कबीर साहब द्वारा प्रचारित मत को मानने चन्द्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ्य देने का विधान है। वाले भक्त । भारत में इनकी पर्याप्त संख्या है। परन्तु दे० निर्णयसिन्धु, १९६; व्रतराज १७२ ।
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