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कुमारी को चार चोटियों में केशों को दांपने वाली 'चतु कपर्दा' (० वे १०.११४, ३) कहा गया है तथा 'सिनीबाली' को सुन्दर चोटी वाली 'सुकपर्दा' कहा गया है ( वाजसनेयी सं० ११.५९) । पुरुष भी अपने केशों को इस भांति राजाते थे, क्योंकि 'रुद्र' (० ० १.११४,१, ५; वाज० सं० १६.१०,२९, ४३, ४८, ५९) तथा 'पूषा' को ऐसा करते कहा गया है ऋ०० ६.५३,२:९.६७, ११) । वसिष्ठों को दाहिनी ओर जूदा वपिने से पहचाना जाता था एवं उन्हें 'दक्षिणाasaपर्व' कहते थे। कपर्दी का प्रतिलो शब्द पुलस्ति है अर्थात् केशों को बिना चोटी किये रखना ।
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कपर्दी (१) शंकर का एक उपनाम, क्योंकि उनके मस्तक पर विशाल जटाजूट बँधा रहता है।
(२) ऋग्वेद और आपस्तम्बधर्मसूत्र के एक भाष्यकार भी 'कपर्दी स्वामी' नाम से प्रसिद्ध हैं । कपविक (वेदान्ताचार्य) - स्वामी रामानुजकृत संग्रह ' ( पृ० १५४ ) में प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यो का उल्लेख मिलता है । इन आचार्यों ने रामानुज से पहले वेदान्त शास्त्र के प्रचार के लिए ग्रन्यनिर्माण किये थे । आचार्य रामानुज के सम्मानपूर्ण उल्लेख से प्रतीत होता है कि ये लोग सविशेष ब्रह्मवादी थे। कपर्दिक उनमें से एक थे। दूसरे पाँच आचार्यों के नाम हैं-भारुचि, टडू, बोधायन गृहदेव एवं द्रविडाचार्य । कपर्दीश्वर विनायक व्रत - श्रावण शुक्ल चतुर्थी को गणेश - पूजन का विधान है। दे० तार्क ७८ ८४ अवतराज १६०-१६८ । दोनों ग्रन्थों में विक्रमार्कपुर का उल्लेख है। और कहते हैं कि महाराज विक्रमादित्य ने इस व्रत का आचरण किया था । कपालकुण्डला - इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपालों (खोपड़ियों) का कुण्डल धारण करनेवाली (साधिका ) ।' कापालिक पंथ में साधक और साधिकाए दोनों कपालों के कुण्डल ( माला) धारण करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखे गये 'मालतीमाधव' नाटक में एक मुख्य पात्र अपोरघण्ट कापालिक संन्यासी है। वह चामुण्डा देवी के मन्दिर का पुजारी था जिसका सम्बन्ध तेलुगुप्रदेश के श्रीशैल नामक शैव मन्दिर से था । कपालकुण्डला अघोरघण्ट की शिष्य भी दोनों योग की साधना करते थे। वे पूर्णरूपेण व विचारों के मानने वाले थे,
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कपर्दी-कपिल
एवं नरबलि भी देते थे। संन्यासिनी कपालकुण्डला मुण्डों की माला पहनती तथा एक भारी डण्डा लेकर चलती थी, जिसमें घण्टियों की रस्सी लटकती थी। अघोरपष्ट मालती को पकड़कर उसकी बलि देना चाहता था, किन्तु वह उससे मुक्त हो गयी । कपालमोचन तीर्थ - सहारनपुर से आगे जगाधारी से चौदह मील दूर एक तीर्थ यहाँ कपालमोचन नामक सरोवर है, इसमें स्नान करने के लिए यात्री दूर दूर से आते हैं । यह स्थान जंगल में स्थित और रमणीक है । कपाली शब्दार्थ है 'कपाल ( हाथ में ) धारण करने वाला' अथवा 'कपाल ( मुण्ड ) की माला धारण करने वाला ।' यह शिव का पर्याय है । किन्तु 'चर्यापद' में इसका एक दूसरा ही अर्थ है कपाली की व्युत्पत्ति उसमे इस प्रकार बतायी गयी है कम महासुखं पालयति इति कपाली । अर्थात् जो 'क' महासुख का पालन करता है वह कपाली है। इस साधना में 'डोम्बी' ( नाड़ी ) के साधक को कपाली कहते हैं।
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कपालेश्वर शिव का पर्याय कापालिक एक सम्प्रदाय की अपेक्षा साधकों का पंथ कहला सकता है, जो विचारों में वाममार्गी शाक्तों का समीपवर्ती है। सातवीं शताब्दी के एक अभिलेख में कपालेश्वर ( देवता । एवं उनके संन्यासियों का उल्लेख पाया जाता है। मुण्डमाला धारण किये हुए शिव ही कपालेश्वर हैं ।
कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महामुनि कपिल के 'सांख्यसूत्र' जो सम्प्रति उपलब्ध है, छ: अध्यायों में विभक्त हैं। और संख्या में कुल ५२४ हैं । इनके प्रवचन के बारे में पञ्चशिखचार्य ने लिखा है
"निर्माणचित्तमधिष्ठाय भगवान् परमधिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच ।"
[ सृष्टि के आदि में भगवान् विष्णु ने योगबल से 'निर्माण चित्त' ( रचनात्मक देह) का आधार लेकर स्वयं उसमें प्रवेश करके, दयार्द्र होकर कपिल रूप से परम तत्व की जिज्ञासा करने वाले अपने शिष्य आसुरि को इस तन्त्र ( सांख्यसूत्र ) का प्रवचन किया। ]
पौराणिकों ने चौबीस अवतारों में इनकी गणना की है । भागवत पुराण में इनको विष्णु का पञ्चम अवतार बतलाया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार 'तत्त्वसमास
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