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कण्वाश्रम-कपर्द
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'कण्व-श्रायस' (तैत्ति० सं० ५.४,७,५; काठक सं० २१.८, मैत्रा० सं० ३.३,९) के रूप में तथा बहुवचन में 'कण्वाः । सौश्रवसः' के रूप में उद्धरण है। कण्वपरिवार का अत्रि- परिवार से सम्बन्ध प्रतीत होता है, किन्तु विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं । अथर्ववेद के एक परिच्छेद में दोनों परिवारों में प्रतियोगिता परिलक्षित है (अ० २.२५)।
महाभारत में कण्व शकुन्तला के धर्मपिता के रूप में उद्धृत हैं । किन्तु यह कहना कठिन है कि ये वही ऋषि हैं, जिनका उल्लेख वैदिक संहिताओं में हुआ है। कण्वाश्रम-बिजनौर जिले के अन्तर्गत अथवा मतान्तर से कोटद्वार से छ: मील दूर मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम है । दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन यहाँ हुआ था। कथासारामृत-मराठा भक्तों की परम्परा में अठारहवों शताब्दी के महीपति नामक भागवत धर्मावलम्बी सन्त ने 'कथासारामत' की रचना की। इसमें भगवत्कथाओं का संग्रह है। कदलीव्रत-यह व्रत भाद्र शुक्ल की चतुर्दशी को किया जाता है। इसमें केले के वृक्ष की पूजा होती है, जिससे सौन्दर्य तथा सन्तति की वृद्धि होती है । गुर्जरों में यह व्रत कार्तिक, माघ अथवा वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन समस्त उपचारों तथा पौराणिक मन्त्रों के साथ किया जाता है । इस व्रत का उद्यापन उसी तिथि को उसी मास में अथवा अन्य किसी शुभ मास में किया जाना चाहिए। यदि केले का वृक्ष अप्राप्य हो तो उसकी स्वर्णप्रतिमा का पूजन किया जाता है। दे० अहल्याकामधेनु, ६११ अ। कनकदास-इनका उद्भव काल १६वीं शती है। ये मध्वमतावलम्बी वैष्णव एवं कन्नड़ भजनों के रचयिताओं में मुख्य हैं। कनखल-हरिद्वार को पंच पुरियों में एक पुरी। नीलधारा तथा नहर वाली गंगा की धारा दोनों यहाँ आकर मिल जाती है । सभी तीर्थों में भटकने के पश्चात यहाँ पर स्नान करने से एक खल की मुक्ति हो गयी थी ( ऐसा कौन खल है जो यहाँ नहीं तर जाता ), इसलिए मुनियों ने इसका नामकरण "कनखल" किया। हरि की पौड़ी से कनखल तीन मील दक्षिण है। यहाँ दक्ष प्रजापति का स्मारक दक्षे- श्वर शिवमन्दिर प्रतिष्ठित है।। कनफटा योगी-गोरखपन्थी साध, जो अपने दोनों कानों के मध्य के रिक्त स्थान में बड़ा छिद्र कराते हैं जिससे वे
उसमें वृत्ताकार कुंडल ( शीशा, काठ अथवा सींग का बना हुआ) पहन सकें । वे अनेकों मालाएं पहनते हैं और उनमें से किसी एक में छोटी चाँदी की मोदी सरकार जिसे 'सिंगीनाद' कहते हैं। मालाओं में एक श्वेत पत्थर की गुरियों की माला प्रायः रहती है, जिसका अभिप्राय है कि धारण करने वाले ने हिंगुलाज ( बलूचिस्तान) स्थित शक्तिपीठ के मन्दिर का दर्शन किया है। वे लोग शाक्त एवं शैव दोनों के मन्दिरों का दर्शन करते हैं। उनका मन्त्र है 'शिव-गोरक्ष'। वे गोरखनाथ की पूजा करते हैं तथा उन्हें अति प्राचीन मानते हैं। योगमार्ग का अधिक आचरण भी इनमें नहीं पाया जाता, क्योंकि आधुनिक संन्यासी साध जैसे ये भी साधारण हो गये हैं। इनके अनेकों ग्रन्थ हैं। 'हठयोग' तथा 'गोरक्षशतक' गोरखनाथ प्रणीत कहे जाते हैं। आधुनिक ग्रन्थों में 'हठयोगप्रदीपिका', स्वात्माराम रचित 'घेरण्डसंहिता' तथा 'शिवसंहिता' हैं। प्रथम सबसे प्राचीन है। प्रदीपिका तथा घेरण्ड के एक ही विषय हैं, किन्तु शिवसंहिता का एक भाग ही हठयोग पर है, शेष शाक्तयोग के भाष्य के सदृश है । दे० 'गोरख पंथ' । कन्दपुराणम्-शव सम्प्रदाय की तमिल शाखा के साहित्य में कन्दपुराण का प्रमुख स्थान है। यह स्कन्दपुराण का तमिल अनुवाद है, जिसे द्वादश शताब्दी में 'काञ्ची अय्यर' नामक शैव सन्त ने प्रस्तुत किया। ये काञ्जीवरम के निवासी थे। कन्याकुमारी-भारत के दक्षिणांचल के अन्तिम छोर पर समुद्रतटवर्ती एक देवीस्थान । 'छोटे नारायण' से कन्याकुमारी बावन मील है। यह अन्तरीप भूमि है। एक ओर बंगाल का आखात, दूसरी ओर पश्चिम सागर तथा सम्मुख हिंद महासागर है । महाभारत (वनपर्व ८५.२३) में इसका उल्लेख है :
ततस्तीरे समुद्रस्य कन्यातीर्थमुपस्पृशेत् ।
तत्तोयं स्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। पद्मपुराण (३८.२३) में इसका माहात्म्य दिया हुआ है। स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ एक समुद्रवेष्टित शिला पर कुछ समय तक भजन-ध्यान किया था। इस घटना की स्मृति में उक्त शिला पर भव्य भवन निर्मित है, जो ध्यान-चिन्तन के लिए रमणीक स्थल बन गया है। कपर्द-'कपर्द' शब्द सिर के केशों को चोटी के रूप में बाँधने की वैदिक प्रथा का बोधक है। इस प्रकार एक
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