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ऋषिकुल्या
भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यवि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है । साधारणतया मन्त्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मन्त्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था ।
परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं के साक्षात्कार करने वाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ । प्रत्येक वैदिक सूक्त के उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है। ऋपिगण पवित्र पूर्व काल के प्रतिनिधि हैं तथा साधु माने गये हैं । उनके कार्यों को देवताओं के कार्य के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उन्हें सात के दल में उल्लिखित किया गया है । बृहदारण्यक उपनिषद् में उनके नाम गोतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्यप एवं अपि बताये गये हैं । ऋग्वेद में कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक, वसिष्ठ, व्यश्व तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं । अथर्ववेद में और भी बड़ी तालिका है, जिसमें अङ्गिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वसिष्ठ, भरद्वाज, गवि ष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवन्त, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उगना काव्य गोतम तथा मुद्गल के नाम सम्मि लित हैं।
वैदिक काल में कवियों की प्रतियोगिता का भी प्रचलन था । अश्वमेव यज्ञ के एक मुख्य अङ्ग 'ब्रह्मोद्य' (समस्यापूर्ति) का यह एक अङ्ग था । उपनिषद्-काल में भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही । इस कार्य में सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवल्क्य जो विदेह राजा जनक की राजसभा में रहते थे ।
ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये हैं । उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्पेय कहा जाता है । यह विश्वास है कि कलियुग में ऋषि नहीं होते, अतः इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है और न नयी स्मृतियों की रचना उनकी रचनाओं का केवल अनुवाद, भाष्य और टीका ही सम्भव हैं ।
ऋषिकुल्या - एक पवि नदी | महाभारत ( तीर्थयात्रा पर्व, २.८४.४६) में इसका उल्लेख है
ऋषिकुल्यां समासाद्य नरः स्नात्वा विकल्मषः । देवान् पितॄन् चार्चयित्वा ऋषिलोकं प्रपद्यते ।। [ मनुष्य ऋषिकुल्या नदी में स्नान कर पापरहित होकर
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तथा देवताओं और पितरों का पूजन करके ऋषिलोक को प्राप्त होता है । ] ऋषिकेश दे० 'हृषीकेश' ।
ऋषिपञ्चमी व्रत - ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार ऋषिपञ्चमी का वर्णन करते हुए हेमाद्रि कहते हैं कि यह व्रत भाद्र शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है । यह सभी वर्णों के लिए है, किन्तु प्रायः स्त्रियाँ ही यह व्रत वर्ष भर की अपवित्रता एवं छूत के प्रायश्चित्तार्थ करती हैं । नदी के स्नानोपरान्त व्रत करने वाले को दैनिक कर्तव्यों से मुक्त हो अग्निहोत्रमण्डप में आना चाहिए, वहाँ सप्तर्षियों की कुश से बनी मूर्ति को पञ्चामृत में नहलाना चाहिए, फिर उन्हें चन्दन तथा कपूर लगाना चाहिए। उनकी पूजा फूल, सुगन्धित पदार्थ, धूप, दीप, श्वेतवस्त्र, यज्ञोपवीत, नैवेद्य से करके अर्घ्य देना चाहिए। इस व्रत को करने से सभी पापों से मुक्ति तीनों प्रकार की बाधाओं से प्राण तथा भाग्योदय होता है। इस व्रत को करनेवाली स्त्री आनन्दोपभोग व सुन्दर शरीर, पुत्र पौत्र आदि प्राप्त करती है ।
ऋष्यमूक पर्वत रामायण की घटनाओं से सम्बद्ध दक्षिण भारत का पवित्र गिरि । विरूपाक्ष मन्दिर के पास से ऋष्यमूक तक मार्ग जाता है। यहाँ तुङ्गभद्रा नदी धनुषाकार बहती है। नदी में चक्रतीर्थ माना जाता है । पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराममन्दिर है । पास की पहाड़ी को 'मतङ्ग पर्वत' मानते हैं। इसी पर्वत पर मतङ्ग ऋषि का आश्रम था। पास ही चित्रकूट और जालेन्द्र नाम के शिखर हैं । यहीं तुङ्गभद्रा के उस पार दुन्दुभि पर्वत दीख पड़ता है, जिसके सहारे सुग्रीव ने श्री राम के बल की परीक्षा करायी थी । इन स्थानों में स्नान-ध्यान करने का विशेष महत्त्व है ।
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ऋ - स्वर वर्ण का अष्टम अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्नांकित है
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ऋकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डलम् । पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ॥ चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणयुतं सदा । त्रिशनिसहितं वर्ण प्रणमामि सदा प्रिये ॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम इस प्रकार हैं :
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