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ओम्-औघड़
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ओम्-प्रणव, ओंकार; परमात्मा । यह नाम अकार, उकार विन्ध्य पर्वत की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव तथा मकार तीन वर्णी से बना हुआ है। कहा भी है : यहाँ ओङ्कारेश्वर रूप में विराजमान हुए हैं। अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः ।
ओगण-पश्चिमी पंडितों के विचार से ऋग्वेद (१०.८९. मकारेणोच्यते ब्रह्मा प्रणवेन त्रयो मताः ।।
१५) में यह शब्द केवल बहुवचन में उन व्यक्तियों के [ अकार से विष्णु, उकार से महेश्वर, मकार से ब्रह्मा
लिए प्रयुक्त हुआ है, जो वैदिक ऋषियों के शत्रु थे । का बोध होता है। इस प्रकार प्रणव से तीनों का बोध
लुड्विग के अनुसार ( ऋग्वेद, ५.२०९ ) यह शब्द एक होता है । ]
व्यक्ति विशेष का बोधक है। पिशेल ( वेदिके स्टुडिअन, यथा पर्ण पलाशस्य शकुनैकेन धार्यते ।
पृ० २, १९१, १९२ ) इसे एक विशेषण बतलाते हैं, तथा जगदिदं सर्वमोंकारेणैव धार्यते ।।
जिसका अर्थ 'दुर्बल' है। (याज्ञवल्क्य)
__ ओङ्कारवादार्थ-तृतीय श्रीनिवास ( अठारहवीं शताब्दी [ जैसे पलाश का पत्ता एक तिनके से उठाया जा
__ के पूर्वार्ध में उत्पन्न ) द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें सकता है, उसी प्रकार यह विश्व ओंकार से धारण किया
विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन किया गया है । जाता है । ]
ओषधिप्रस्थ–ओषधि-वनस्पतियों से भरपूर पर्वतीय भूमि; ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
ऐसे स्थान पर बसी हुई नगरी, जो हिमालय की राजकण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान् माङ्गलिकावुभौ ॥
धानी थी। इसका कुमारसम्भव में वर्णन है : [ ओंकार और अथ शब्द ये दोनों ब्रह्मा के कण्ठ को
तत्प्रयातौषधिप्रस्थं सिद्धये हिमवत्पुरम् । भेदन करके निकले है। इसीलिए इन्हें माङ्गलिक कहा
[ कार्यसिद्धि के लिए हिमालय के ओषधिप्रस्थ नामक गया है। ]
नगर को जाइए।] तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।।
उपासना और यौगिक क्रियाओं के लिए यह स्थान (गीता, अ०१७) उपयुक्त माना गया है।
औ [ इसलिए 'ॐ' का उच्चारण करके ब्रह्मवादी लोग विधिपूर्वक निरन्तर यज्ञ, दान, तप की क्रिया आरम्भ औ-स्वर वर्ण का चतुर्दश अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका करते हैं।]
माहात्म्य इस प्रकार दिया हुआ है : ___'ओम्' स्वीकार, अंगीकार, रोष अर्थों में भी प्रयुक्त रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम् । होता है।
अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये ॥ योगी लोग ओंकार का उच्चारण दीर्घतम घंटाध्वनि
पञ्चप्राणमयं वर्ण सदाशिवमयं सदा। के समान बहुत लम्बा या अत्यन्त प्लुत स्वर से करते हैं,
सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम् ॥ उसका नाम 'उद्गीथ' है। प्लुत के सूचनार्थ ही इसके
तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं : बीच में '३' का अंक लिखा जाता है। इसकी गुप्त चौथी
औकारः शक्तिको नादस्तेजसो वामजङ्घकः ।
मनुरर्द्धग्रहेशश्च मात्रा का उच्चारण या चिन्तन ब्रह्मज्ञानी जन करते है।
शङ्कर्णः सदाशिवः ।। ओङ्कारेश्वर-प्रसिद्ध शव तीर्थ । द्वादश ज्योतिलिङ्गों में
अधोदन्तश्च कण्ठ्योष्ठ्यौ सङ्कर्षणः सरस्वती । 'ओङ्कारेश्वर' की गणना है। यहाँ दो ज्योतिर्लिङ्ग हैं;
आज्ञा चोर्ध्वमुखी शान्तो व्यापिनी प्रकृतः पयः ।। ओडारेश्वर और अमलेश्वर । नर्मदा नदी के बीच में
अनन्ता ज्वालिनी व्योमा चतुर्दशी रतिप्रियः । मान्धाता द्वीप पर ओडारेश्वर लिङ्ग है । यहीं पर सूर्य- नेत्रमात्मकर्षिणी च ज्वाला मालिनिका भृगुः ।। वंश के चक्रवर्ती राजा मान्धाता ने शङ्कर की तपस्या की औघड़-प्राचीन पाशुपत सम्प्रदाय प्रायः लुप्त हो गया है। थी। इस द्वीप का आकार प्रणव से मिलता जलता है। उसके कुछ विकृत अनुयायी अघोरी अवश्य देखे जाते हैं।
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