________________
१४४
एकोद्दिष्टश्राद्ध-एकोरामाराध्य शिवाचार्य
जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय ( कर्मफल के संस्कार) से मुक्त रहता है; उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है । दे० पातञ्जल योगसूत्र, १.२४ । योगसूत्र की भोजवृत्ति (२.४५) के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो विघ्न बाधा उपस्थित होती है उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधिसिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है । परन्तु इस वाद में ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं और न प्रकृति और पुरुषों में सर्वत्र व्याप्त; वह केवल उपदेष्टा और गुरु है।
एकेश्वरवाद में ईश्वरकारणतावाद ( ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है ) के समर्थन में नैयायिकों ने बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उदयनाचार्य ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें तीन मुख्य है-प्रथम है, 'जगत् की कार्यता।' इसका अर्थ यह है कि जगत् कार्य है अतः इसका कोई न कोई कारण होना चाहिए और उसे कार्य-कारण-शृङ्खला से परे होना चाहिए। वह है ईश्वर । दूसरा प्रमाण है 'जगत् का आयोजनत्व', अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण कार्यों में एक क्रम अथवा योजना दिखाई पड़ती है। यह योजना जड़ से नहीं उत्पन्न हो सकती। इसकी संयोजक कोई चेतन सत्ता ही होनी चाहिए। वह सत्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती। तीसरा प्रमाण है 'कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध', अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध । इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए । एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के बिना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है । योगसूत्र में ईश्वर की सिद्धि के लिए एक और प्रमाण मिलता है। वह है सृष्टि में ज्ञान का तारतम्य (अनेक प्राणियों में ज्ञान की न्यूनाधिक मात्रा)। इस ज्ञान की कहीं न कहीं पराकाठा होनी चाहिए। वह ईश्वर में ही संभव है। सबसे बड़ा प्रमाण है सन्त और महात्माओं, ऋषि-मुनियों का साक्षात् अनुभव, जिन्होंने स्वतः ईश्वरानुभूति की है। एकोद्दिष्ट श्राद्ध-एक मृत व्यक्ति की शान्ति और तृप्ति के लिए किया गया श्राद्ध । यह परिवार के पितरों के वार्षिक श्राद्ध से भिन्न है । किसी व्यक्ति के दुर्दशाग्रस्त होकर मरने, डूबकर मरने, बूरे दिन पर मरने, मूलतः हिन्दू पर
बाद में मुसलमान या ईसाई हो जाने वाले एवं जातिबहिष्कृत की मृत्यु पर 'नारायणबलि' नामक कर्म करते हैं। यह भी एकोद्दिष्ट का ही रूप है।
इसके अन्तर्गत शालग्राममूर्ति की विशेष पूजा के साथ बीच-बीच में प्रेत का भी संस्कार किया जाता है। यह श्राद्धकर्म समस्त भारत में सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों में सामान्य अन्तर के साथ प्रचलित है। एकोराम-वीरशैव मत के संस्थापकों में से एक आचार्य । वीरशैव मत को लिंगायत वा जंगम भी कहते हैं। इसके संस्थापक पाँच संन्यासी माने जाते हैं, जो शिव के पाँच सिरों से उत्पन्न दिव्य रूपधारी माने गये हैं। कहा जाता है कि पाँच संन्यासी अतिप्राचीन युग में प्रकट हुए थे, बाद में वसव ने उनके मत को पुनर्जीवन दिया। किन्तु प्राचीन साहित्य के पर्यालोचन से पता चलता है कि ये लोग वसव के समकालीन अथवा कुछ आगे तथा कुछ पीछे के समय के हैं । ये पाँचों महात्मा वीरशैव मत से सम्बन्ध रखने वाले पाँच मठों के महन्त थे । एकोराम भी उन्हीं में से एक थे और ये केदारनाथ (हिमालय) मठ के अध्यक्ष थे। एकोरामाराध्य शिवाचार्य-कलियुग में उत्पन्न वीरशैव मत के एक आचार्य । दे० 'एकोराम' ।
ऐ-स्वर वर्ण का द्वादश अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्न प्रकार है:
ऐकारं परमं दिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम् । कोटिचन्द्र प्रतीकाशं पञ्च प्राणमयं सदा ।। ब्रह्मविष्णुमयं वर्ण तथा रुद्रमयं प्रिये ।
सदाशिवमयं वर्ण बिन्दुत्रय समन्वितम् ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं : ऐलज्जा भौतिकः कान्ता वायवी मोहिनी विभुः । दक्षा दामोदरः प्रज्ञोऽधरो विकृतमुख्यपि ।। क्षमात्मको जगद्योनिः परः परनिबोधकृत् । ज्ञानामृता कपदिश्रीः पीठेशोऽग्निः समातृकः ।। त्रिपुरा लोहिता राज्ञी वाग्भवो भौतिकासनः । महेश्वरो द्वादशी च विमलश्च सरस्वती ।। कामकोटो वामजानुरंशमान विजयो जटा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org