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एकायन-एकेश्वरवाद
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एक है सब
ईश्वर
पुरुषसू
एकायन-मख्य आश्रय, एक मात्र गन्तव्य मार्ग, एकनिश्चय।। दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त एकेश्वरछान्दोग्य उपनिषद् में उद्धत अध्ययन का एक विषय; सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। पुराणों में तो ईश्वर संभवतः नीतिशास्त्र । सेंट पीटर्सवर्ग डिक्शनरी में इसका के अस्तित्व का ही नहीं, किन्तु उसकी भक्ति, साधना अर्थ 'ऐक्य का सिद्धान्त' अर्थात 'एकेश्वरवाद' बतलाया गया और पूजा का अपरिमित विकास हुआ । विशेष कर विष्णुहै । मैक्समूलर इसका अर्थ 'आचरण शास्त्र' तथा मोनियर पुराण और श्रीमद्भागवतपुराण ईश्वरवाद के प्रबल विलियम अपने शब्दकोश में 'सांसारिक ज्ञान' बतलाते हैं। पुरस्कर्ता है। वैष्णव, शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों में भी एकाष्टका-अथर्ववेद ( १५. १६. २; शतपथ ब्राह्मण ६, एकेश्वरवाद की प्रधानता रही है। इस प्रकार ऋग्वेद२, २, २३, ४, २, १० ) के अनुसार पूर्णमासी के पश्चात् काल से लेकर आज तक भारत में एकेश्वरवाद प्रतिअष्टम दिन एकाष्टका कहलाता है । एकाष्टका या अष्टका । का अर्थ सभी अष्टमी नहीं, अपितु कोई विशेष अष्टमी व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद की प्रधानता प्रतीत होता है। अथर्व० (३.१०) में सायण ने एकाष्टका होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की को माघ मास का कृष्णपक्षीय अष्टम दिन बतलाया है। दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता हैतैत्तिरीय संहिता में यह दिन उन लोगों की दीक्षा के लिए अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में निश्चित किया गया है, जो एक वर्ष की अवधि का कोई पूर्ण विलय । जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई यज्ञ करने जा रहे हों।
रूप हैं। एक है सर्वेश्वरवाद । इसका अर्थ यह है कि एकेश्वरवाद-बहुत-से देवताओं की अपेक्षा एक ही ईश्वर जगत् में जो कुछ भी है वह ईश्वर ही है और ईश्वर
को मानना । इस धार्मिक अथवा दार्शनिक वाद के अनुसार सम्पूर्ण जगत् में ओत-प्रोत है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कोई एक सत्ता है जो विश्व का सर्जन और नियन्त्रण सर्वेश्वरवाद का रूपक के माध्यम से विशद वर्णन है। करती है; जो नित्य ज्ञान और आनन्द का आश्रय है; जो उपनिषदों में 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ।' पूर्ण और सभी गुणों का आगार है और जो सबका ध्यान में भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन है। परन्तु भारतीय केन्द्र और आराध्य है। यद्यपि विश्व के मूल में रहने सर्वेश्वरवाद पाश्चात्य 'पैनथिइज्म' नहीं है। पैनथिइज्म वाली सत्ता के विषय में कई भारतीय वाद हैं, जिनमें में ईश्वर अपने को जगत में समाप्त कर देता है। भारतीय एकत्ववाद और अद्वैतवाद बहुत प्रसिद्ध हैं, तथापि एकेश्वर- सर्वेश्वर जगत् को अपने एक अंश से व्याप्त कर अनन्त वाद का उदय भारत में, ऋग्वेदिक काल से ही पाया विस्तार में उसका अतिरेक कर जाता है। वह अन्तर्यामी जाता है । अधिकांश यूरोपवासी प्राच्यविद्, जो भारतीय और अतिरेकी दोनों है। एकेश्वरवाद का दूसरा रूप है दैवततत्त्व को समझने में असमर्थ हैं और जिनको एक- 'ईश्वर कारणतावाद' । इसके अनुसार ईश्वर जगत् का अनेक में बराबर विरोध ही दिखाई पड़ता है, ऋग्वेद के निमित्त कारण है । जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। सिद्धान्त को बहुदेववादी मानते हैं । भारतीय विचार- ईश्वर जगत् की सृष्टि करके उससे अलग हो जाता है धारा के अनुसार विविध देवता एक ही देव के विविध और जगत् अपनी कर्मशृङ्खला से चलता रहता है । न्याय रूप हैं । अतः चाहे जिस देव की उपासना की जाय वह और वैशेषिक दर्शन इसी मत को मानते हैं । एकेश्वरवाद अन्त में जाकर एक ही देव को अर्पित होती है । ऋग्वेद का तीसरा रूप है 'शुद्ध ईश्वरवाद' । इसके अनुसार ईश्वर में वरुण, इन्द्र, विष्णु, विराट् पुरुष, प्रजापति आदि का सर्वेश्वर और ब्रह्म के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात् यही रहस्य बतलाया गया है।
कर लेता है । वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी उपनिषदों में अद्वैतवाद के रूप में एकेश्वरवाद का और जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, जगत् का सर्वस्व और वर्णन पाया जाता है । उपनिषदों का सगुण ब्रह्म ही ईश्वर आराध्य है। इसी को श्रीमद्भगवद्गीता में पुरुषोत्तम है, यद्यपि उसकी सत्ता व्यावहारिक मानी गयी है, कहा गया है। सगुणोपासक वैष्णव तथा शैव भक्त इसी पारमार्थिक नहीं । महाभारत में (विशेष कर भगवद्गीता ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। एकेश्वरवाद का चौथा में ) ईश्वरवाद का सुन्दर विवेचन पाया जाता है। षड्- रूप है 'योगेश्वरवाद' । इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है
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