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ऋग्वेद
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यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः
सन्ति देवाः ॥१६॥ [ देवों (दिव्य शक्तिवाले पुरुषों) ने यज्ञ से ही यज्ञ का अनुष्ठान किया, अर्थात् विश्वकल्याणी मूल सत्ता का ही विश्वहित में विस्तार किया । यज्ञ के जो नियम बने वे ही प्रथम धर्म हए । जो इस विराट् पुरुष की उपासना करनेवाले लोग हैं वे ही आदरणीय देवता हैं । ]
ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' (अष्टक ८, अध्याय ७, वर्ग १७) में गूढ़ दार्शनिक प्रश्न उठाये गये हैं : नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं
नासीद्र जो नो व्योमाऽपरो यत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्
__ नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥१॥ न मृत्युरासीदमृतं न तहि
न राव्या अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधया तदेक
तस्माद् धान्यन्न परः किञ्चनास ।।२।। तम आसीत् तमसा गूढमग्र
प्रतं सलिलं सर्वमा इदम् । तच्छ्येनाभ्यपिहितं यदासीत्
तपसस्तन्महिना जायतकम् ॥३॥ कामस्तदन समवर्तताधि
मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । सतो बन्धुमसति निरविन्दन्
हृदि प्रतीप्या कवयो मनीषा ॥४॥ तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम्
___अधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् । रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्
स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥ को अद्धा वेद क इह प्रावोचत् ।
कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः । अग्देिवा अस्य विसर्जनेनाथा
को वेद यत आबभूव ॥६॥ इयं विसृष्टिर्यंत आबभूव
यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्
सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥ [ उस समय न तो असत् (शून्य रूप आकाश) था और
न सत् (सत्त्व, रज तथा तम मिलाकर प्रधान) था। उस समय रज (परमाणु) भी नहीं थे और न विराट व्योम (सबको धारण करने वाला स्थान) था। यह जो वर्तमान जगत् है वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढंक सकता और न उससे अधिक अथाह हो सकता है, जैसे कुहरे का जल न तो पथ्वी को ढंक सकता है और न नदी में उससे प्रवाह चल सकता है । जब यह जगत् नहीं था तो मृत्यु भी न थी और न अमृत था। न रात थी और न दिन था। एक ही सत्ता थी, जहाँ वायु की गति नहीं है। वह सत्ता स्वयं अपने प्राण से प्राणित थी। उस सत्ता के अतिरिक्त कुछ नहीं था। तम था। इसी तम से ढंका हुआ वह सब कुछ थाचिह्न और विभाग रहित । वह अदेश और अकाल में सर्वत्र सम और विषय भाव से नितान्त एक में मिला और फैला हुआ था। जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढंकी थी-आकारहीन । तब तपस् की महान् शक्ति से सर्वप्रथम एक की उत्पत्ति हुई। सबसे पहले (विश्व के विस्तार की) कामना उठ खड़ी हुई । जब ऋषियों ने विचार और जिज्ञासा की तो उनको पता लगा कि यही कामना सत्
और असत् को बाँधने का कारण हुई। सत् और असत की विभाजक रेखा तिर्यक् रूप से फैल गयी। इसके नीचे और ऊपर क्या था? अत्यन्त शक्तिशाली बोज था। इधर जहाँ स्वतन्त्र क्रिया थी उधर परा शक्ति थी। वास्तव में कौन जानता है और कह सकता है कि यह सुष्टि कहाँ से हुई ? देवताओं की उत्पत्ति इस सृष्टि से पीछे की है । फिर कौन कह सकता है कि यह सृष्टि कब हुई। वेद ने जो सृष्टिक्रम का वर्णन किया है वह उसको कैसे ज्ञात हुआ ? जिससे यह सृष्टि प्रकट हुई उसी ने इसको रचा अथवा नहीं रचा है (और यह स्वतः आविर्भूत हो गयो है ?)। परम आकाश में इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (निरीक्षण करनेवाला) है, वही इसको जानता है, अथवा शायद वह भी नहीं जानता । ]
ऋग्वेद में जिस पूजापद्धति का विधान है उसमें देवस्तुति प्रथम है। मन्त्रोच्चारण द्वारा साधक अपने साध्य से सांनिध्य स्थापित करना चाहता है। इसके साथ ही यज्ञ का विधान है, जिसका उद्देश्य है अपनी सम्पत्ति और जीवन को देवार्थ (लोकहिताय) समर्पित करना। देव और मनुष्य का साक्षात्कार सीधा-सुगम है । अतः प्रतिमा की आवश्यकता नहीं । जिनका देव और यज्ञ में विश्वास नहीं वे शिश्नदेव (शिश्नोदरपरायण) हैं । इस प्रकार इसमें
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