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ऋग्वेद
बृहती
पुरुष के रूपक से बहुत सुन्दर रूप में हुआ है। इसके कुछ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं :
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमि सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गलम् ॥१॥ [ पुरुष (विश्व में पूर्ण होने वाली अथवा व्याप्त सत्ता) सहस्र (असंख्यात अथवा अनन्त) सिर वाला, सहस्र आँख वाला तथा सहस्र पाँव वाला है। वह भूमि (जगत्) को सभी ओर से घेरकर भी इसका अतिक्रमण दस अंगुल से किये हुए है। अर्थात् पुरुष इस जगत् में समाप्त न होकर इसके भीतर और परे दोनों ओर है । ]
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥ [जितना भी विश्व का विस्तार है वह सब इसी विराट-पुरुष की महिमा है । यह पुरुष अनन्त महिमा वाला है। इसके एक पाद ( चतुर्थांश = कियदंश ) में ही सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इसके अमृतमय तीन पाद ( अधिकांश) प्रकाशमय लोक को आलोकित कर
पादनिवृत्
पदपक्ति विष्टारपङ्क्ति चतुर्विंशतिक पङ्क्ति उष्णिग्गी द्विपदी पङ्क्त्युत्तरा उष्णिक धृति पिपीलिकमध्या वर्धमाना द्विपदाविराट् प्रगाथ विपरीता एकपदात्रिष्टुप् प्रस्तारपङ्क्ति विरापा एकपदाविराट् प्रतिष्ठा विराट गायत्री पुरस्ताद् विराट्पूर्वा जगती
बृहती विराट्स्थाना ककुप्
यवमध्या विष्टारबृहती कृति
ऋग्वेद में देवतातत्त्व के अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन हुआ है । सम्पूर्ण विश्व का किसी न किसी 'दैवत' के रूप में ग्रहण है। मुख्य देवताओं को स्थानक्रम से तीन वर्गों-(१) भूमिस्थानीय, (२) अन्तरिक्षस्थानीय तथा (३) व्योमस्थानीय में बाँटा गया है। इसी प्रकार परिवारक्रम से देवताओं के तीन वर्ग है(१) आदित्यवर्ग (सूर्य परिवार), (२) वसुवर्ग तथा (३) रुद्रवर्ग। इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक देवता भी हैं, जैसे श्रद्धा, मन्यु, वाक् आदि । बहुत से ऋषिपरिवारों का भी देवीकरण हुआ है, जैसे ऋभु आदि । नदी, पर्वत, यज्ञपात्र, यज्ञ के अन्य उपकरणों का भी देवीकरण किया गया है।
ऋग्वेद के देवमण्डल को देखकर अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसमें बहुदेववाद का ही प्रतिपादन किया गया है। परन्तु यह मत गलत है । वास्तव में देवमण्डल के सभी देवता एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं; अपितु वे एक ही मूल सत्ता के दृश्य जगत् में व्यक्त विविध रूप हैं । सत्ता एक ही है । स्वयं ऋग्वेद में कहा गया है :
‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति,
अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।' [ मूल सत्ता एक ही है । उसी को विप्र (विद्वान्) अनेक प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं । उसी को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि कहा गया है। ] वरुण, इन्द्र, सोम, सविता, प्रजापति, त्वष्टा आदि भी उसी के नाम हैं।
एक ही सत्ता से सम्पूर्ण विश्व का उद्भव कैसे हुआ है, इसका वर्णन ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.९०) में विराट
तस्माद् यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥७॥ [ उसी सर्वहुत यज्ञ (विश्व के लिए पूर्ण रूपेण अर्पित सत्ता) से ऋक् और साम उत्पन्न हुए। उसी से छन्द ( स्वतन्त्र ध्वनि) उत्पन्न हुए और उसी से यजुः भी।]
यत्पुरुषं व्यदधुः. कतिधा व्यकल्पयन् । मुखं किमस्यासीत् किम्बाहू किमूरू पादा उच्यते । [ जिस पुरुष का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है उसका मुख क्या था, बाहु क्या, जंघा क्या और पाँव क्या थे ? ]
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥११॥ [ ब्राह्मण इसका मुख था, राजन्य (क्षत्रिय) इसकी भुजाएँ थीं, जो वैश्य (सामान्य जनता) है वह इसकी जंघा थी; इसके पाँवों से शूद्र उत्पन्न हुआ। अर्थात् सम्पूर्ण समाज विराट् पुरुष से ही उत्पन्न हुआ और उसी का अङ्गभूत है।]
इसाक ही सत्ता से सम्बर्ष चिस्व का उद्भव की हत्या है
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