________________
११४
उपक्रमपराक्रम-उपदेश
है । यह रचना ५४ पद्यों में शैव सिद्धान्त को प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत करती है। उपक्रमपराक्रम-अप्पय दीक्षित रचित पूर्वमीमांसादर्शन का एक ग्रन्थ । उपक्रम एवं उपसंहारादि षड्विध लिङ्गों से शास्त्र का निर्णय किया जाता है। इस ग्रन्थ में यह दिखलाया गया है कि उपक्रम ही सबसे अधिक प्रबल है
और ग्रन्थ का प्रतिपाद्य सिद्धान्त इसी से स्पष्ट हो जाता है। उपकुर्वाण-ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण करने के अनन्तर जो स्नातक गृहस्थ होता है उसको उपकुर्वाण कहते हैं। स्नातक दो प्रकार के होते हैं-(१) उपकुर्वाण और (२) नैष्ठिक । अधिकांश स्नातक उपकुर्वाण होते हैं जो आचार्य की अनुज्ञा लेकर गार्हस्थ्य आश्रम में प्रवेश करते हैं। उपकूर्वाण का अर्थ है 'कर्मनिष्ठ' । नैष्ठिक का अर्थ है 'ज्ञाननिष्ठ' । कुछ स्नातक ऐसे होते थे जो गार्हस्थ्य में नहीं आना चाहते थे। वे गुरुकुल में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ज्ञानार्जन करते थे । उपकूपजलाशय-कुँए के पास बनाया गया जलाशय । कँए के पास पशुओं के पीने के लिए पत्थर आदि के द्वारा बाँधा गया पानी रखने का स्थान । यह पूर्त कर्म माना जाता है । इसके बनवाने से अदृष्ट पुण्य होता है। उपक्षेपणधर्म-उपक्षेपण रूप धर्म । शूद्र का अन्न, जिसे ब्राह्मण के घर पकाने के लिए दिया गया हो, उपक्षेपण कहलाता है। उपग्रन्थसूत्र-सामवेदीय सूत्रग्रन्थों में से एक सूत्रग्रन्थ ।। ऋग्वेदीय अनुक्रमणिकाकार षड्गुरुशिष्य ने लिखा है कि 'उपग्रन्थसत्र' कात्यायन द्वारा निर्मित हआ है। उपग्रहण-उपाकरण का पर्याय । संस्कारपूर्वक गुरु से वेदों का ग्रहण करना उपग्रहण कहलाता है। श्रावणी पूर्णिमा को यह कृत्य किया जाता है । दे० 'उपाकर्म' । उपज्ञा-सर्वप्रथम उत्पन्न ज्ञान, उपदेश के विना हृदय में स्वतः उद्भूत प्रथम ज्ञान । जैसे वाल्मीकि को श्लोक निर्माण करने का ज्ञान प्राप्त हो गया था : 'अथ प्राचेतसोपज्ञं रामायणमितस्ततः ।'
(रघुवंश १५,६३) [इसके पश्चात् वाल्मीकि ने रामायण का स्वतः ज्ञान प्राप्त किया । उपतन्त्र-तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। ऐसे तन्त्र संख्या में सौ से भी अधिक हैं । वाराही तन्त्र से यह भी
पता चलता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं जिनकी गिनती नहीं हो सकती। (दे० आगम) उपदेवता-जो देवता की समानता को प्राप्त हो, यक्ष, भत आदि । उपदेवता दस है, जैसा कि अमरकोश में बताया गया है :
विद्याधराऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ।।
[(१) विद्याधर, (२) अप्सरा, (३) यक्ष, (४) राक्षस, (५) गन्धर्व, (६) किन्नर, (७) पिशाच, (८) गुह्यक, (९) सिद्ध और (१०) भूत । ये देवयोनियाँ हैं ।] उपदेश-मन्त्र आदि का शिक्षण या कथन । उसका पर्याय है दीक्षा । यथा :
सूर्यचन्द्रग्रहे तीर्थे सिद्धक्षेत्रे शिवालये । मन्त्रमात्रप्रकथनमुपदेशः स उच्यते ॥
(रामार्चनचन्द्रिका) [चन्द्र-सूर्यग्रहण, तीर्थ, सिद्धक्षेत्र, शिवालय में मन्त्र कहने को उपदेश कहते है ।] हितकथन को भी उपदेश कहा जाता है। हितोपदेश के विग्रह खण्ड में कहा है :
'उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये ।' [मूों को हितकर वचन से क्रोध ही आता है, शान्ति नहीं ।
शिक्षण के अर्थ में भी यह शब्द प्रयुक्त होता है, मनु (८.२७२) ने इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया है।
हिन्दू संस्कृति में मौखिक उपदेश द्वारा भारी जनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा नहीं थी। यहाँ के सभी आचार्यों ने आचरण अथवा चरित्र के ऊपर बड़ा जोर दिया है। समाज का प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार में ही निहित है। कोरे विचार के प्रचार से आचार संगठित नहीं होता । इसलिए आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक 'आचार्य' कहलाते थे । उपदेशक उनका नाम न था । जहाँ तक पता चलता है, भारी जनसमूह के सामने मौखिक व्याख्यान द्वारा विचारों के प्रचार करने की पद्धति की नींव सर्वप्रथम महात्मा गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों ने डाली । तब से इस रूप में धर्म के प्रचार की रीति चल पड़ी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org