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उपनयन
आचार का विकास करना। इस सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य- कुमारस्योपनयनं श्रुताभिजनवृत्तवान् । स्मृति (१.१५) का कथन है :
तपसा धूतनिःशेषपाप्मा कुर्याद् द्विजोत्तमः ॥ शौनक उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृतिपूर्वकम् ।
सत्यवाग् धृतिमान् दक्षः सर्वभूतदयापरः । वेदमध्यापयेदेनं शौचाचारांश्च शिक्षयेत् ।।
आस्तिको वेदनिरतः शुचिराचार्य उच्यते ।। [गुरु को महाव्याहृति (भः भुवः स्वः) के साथ शिष्य वेदाध्ययनसम्पन्नो वृत्तिमान् विजितेन्द्रियः । का उपनयन करके उसको वेदाध्ययन कराना तथा शौच दक्षोत्साही यथावृत्तजीवनेहस्तु वृत्तिमान् ।। यम और आचार की शिक्षा देनी चाहिए । ] विभिन्न वर्ण के
संस्कार सम्पन्न करने के लिए किसी उपयुक्त समय बालकों के उपनयनार्थ विभिन्न आय का विधान है;
का चुनाव किया जाता है । प्रायः उपनयन जब सूर्य ब्राह्मणबालक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रियबालक
उत्तरायण में (भूमध्य रेखा के उत्तर) रहता है तव किया का ग्यारहवें वर्ष में, वैश्यबालक का बारहवें वर्ष में होना
जाता है । परन्तु वैश्य बालक का उपनयन दक्षिणायन में चाहिए । दे० पारस्करगृह्यसूत्र, २.२; मनुस्मृति, २.३६;
भी हो सकता है । विभिन्न वर्गों के लिए विभिन्न ऋतुएँ याज्ञवल्क्यस्मृति, १.११ । इस अवधि के अपवाद भी पाये
निश्चित है। ब्राह्मण बालक के लिए वसन्त, क्षत्रिय जाते हैं । प्रतिभाशाली बालकों का उपनयन कम आयु में
बालक के लिए ग्रीष्म, वैश्य बालक के लिए शरद तथा भी हो सकता है। ब्रह्मवर्चस की कामना करने वाले
रथकार के लिए वर्षा ऋतु निर्धारित हैं। ये विभिन्न ब्राह्मण बालक का उपनयन पाँचवें वर्ष में हो सकता है।
ऋतुएँ विभिन्न वर्गों के स्वभाव तथा व्यवसाय को उपनयन की अन्तिम अवधि ब्राह्मण बालक के लिए सोलह
प्रतीक हैं। वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए बाईस वर्ष और वैश्य बालक ।
संस्कार के आरम्भ में क्षौरकर्म (मुण्डन) और स्नान के लिए चौबीस वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति निर्धारित अंतिम
के पश्चात् बालक को गुरु की ओर से ब्रह्मचारी के अनुअवधि के पश्चात् भी अनुपनीत रह जाय तो वह सावित्री
कूल परिधान दिये जाते हैं। उनमें प्रथम कौपीन है जो पतित, आर्यधर्म से विहित, ब्रात्य हो जाता है। मनु
गुप्त अङ्गों को ढकने के लिए होता है। शरीर के सम्बन्ध (२.३९) का कथन है :
में यह सामाजिक चेतना का प्रारम्भ है। मन्त्र के साथ अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः ।
आचार्य कौपीन तथा अन्य वस्त्र देता है। इसके साथ ही सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविहिताः ।।
ब्रह्मचारी को मेखला प्रदान की जाती है। इसकी उपपरन्तु व्रात्य हो जाने के पश्चात् भी आर्य समाज
योगिता शारीरिक स्फूर्ति और आन्त्रजाल की पुष्टि के (शिष्ट समाज) में लौटने का रास्ता बन्द नहीं हो जाता,
लिए होती है। व्रात्यस्तोम नामक प्रायश्चित्त करके पुनः उपनयनपूर्वक समाज में लौटने का विधान है :
मेखला के पश्चात् ब्रह्मचारी को यज्ञोपवीत पहनाया तेषां संस्कारेप्सुत्यिस्तोमेनेष्ट्वा काममधीयीत ।
जाता है । यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आजकल उपनयन (पारस्करगृह्यसूत्र २.५.५४)
संस्कार का नाम ही यज्ञोपवीत संस्कार हो गया है । यज्ञइसके लिए आचार्य का निर्वाचन बड़े महत्त्व का है।
उपवीत का अर्थ है 'यज्ञ के समय पहना हुआ ऊपरी उपनयन का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति और चरित्र का निर्माण
वस्त्र ।' वास्तव में यह यज्ञवस्त्र ही था जो संक्षिप्त है। यदि आचार्य ज्ञानसम्पन्न और सच्चरित्र न हो तो
प्रतीक के रूप में तीन सूत्र मात्र रह गया है। वह शिष्य के जीवन का निर्माण नहीं कर सकता। 'जिसको इसी प्रकार मृगचर्म, दण्ड आदि भी उपयुक्त मन्त्रों के अविद्वान् आचार्य उपनीत करता है वह अन्धकार से अन्ध- साथ प्रदान किये जाते हैं । कार में प्रवेश करता है । अतः कुलीन, विद्वान तथा आत्म- ब्रह्मचारी को परिधान समर्पित करने के पश्चात कई संयमी आचार्य की कामना करनी चाहिए।' दे० 'उप- ___ एक प्रतीकात्मक कर्म किये जाते हैं । पहला है आचार्य द्वारा निषद्' । स्मृतियों में आचार्य के गुणों पर विशेष बल अपनी भरी हुई अञ्जलि से ब्रह्मचारी की अञ्जलि में दिया गया है :.
जल डालना, जो शुचिता और ज्ञान-प्रदान का प्रतीक है ।
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