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प्रभावशाली ढंग से निरूपण हुआ है । अतः यह बहुत लोकप्रिय है।
२. केनोपनिषद् - इसके नामकरण का कारण यह है कि इसका प्रारम्भ 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' वाक्य से होता है। यह सामवेद की जैमिनीय शाखा के ब्राह्मणग्रन्थ का नवम अध्याय है इसको 'ब्राह्मणोपनिषद्' भी कहते हैं । इसका प्रतिपाद्य विषय ब्रह्मतत्त्व है। इसके अनुसार जो ब्रह्मतत्त्व जान लेता है वह सभी बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है ।
।
३. कठोपनिषद् - कृष्णयजुर्वेद की कठशाला के अन्त र्गत यह उपनिषद् आती है । इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं । इसका प्रारम्भ नचिकेता की कथा से होता है, जिसमें श्रेय और प्रेय का सुन्दर विवेचन है।
४. प्रश्नोपनिषद् - अथर्ववेद की पिप्पलाद संहिता के ब्राह्मणग्रन्थ का एक अंश प्रश्नोपनिषद कहलाता है । इसमें प्रश्नोत्तर के रूप में प्रातत्व का निरूपण किया गया है । इसीलिए इसका यह नामकरण हुआ ।
५. मुण्डकोपनिषद् - अथर्ववेद की शौनक शाखा का एक अंश मुण्डकोपनिषद् है। इसमें तीन मुण्डक और प्रत्येक मुण्डक में दो-दो अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा ब्रह्मतत्व इसके विचारणीय विषय है।
६. माण्डूक्योपनिषद् - यह अथर्ववेद की एक संक्षिप्त उपनिषद् है । इसमें केवल बारह मन्त्र हैं । इसमें 'ओंकार' के महत्व का निरूपण है ।
उपनिषद् है । ब्राह्मणग्रन्थ के
७. तैत्तिरीयोपनिषद् - यह यजुर्वेदीय कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के अन्तिम भाग को 'तैत्तिरीय आरण्यक' कहते हैं। यह आरण्यक दस प्रपाठकों में विभाजित है। इनमें से सात से नौ तक के प्रपाठकों को तैत्तिरीय उपनिषद् कहते हैं । उपर्युक्त तीन प्रपाठकों के क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली नाम हैं । प्रथम वल्ली में शिक्षा का माहात्म्य, दूसरी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण तथा तीसरी में वरुण द्वारा अपने पुत्र को उपदेश हैं ।
८. ऐतरेयोपनिषद् - यह ऋग्वेदीय उपनिषद् है। ऋग्वेद के 'ऐतरेय ब्राह्मण' के पांच भाग है जिनको पाँच आर व्यक की संज्ञा दी गयी है। इसके द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ से षष्ठ- तीन अध्यायों को ऐतरेयोपनिषद् कहते
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उपनिषद्
हैं ।
इन तीन अध्याओं में क्रमशः सृष्टि जीवात्मा और ब्रह्मतत्व का निरूपण है ।
९. छान्दोग्य उपनिषद् - सामवेद की कौथुमी शाखा के तीन ब्राह्मण हैं - ( १ ) ताण्डव, (२) पवंश और (३) मन्त्र । इन्हीं के अन्तिम आठ अध्याय छान्दोग्य ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य उपनिषद् कहलाते हैं । ये आठ अध्याय बहुत विस्तृत हैं अतः यह उपनिषद् बहुत विशाल है ।
१०. बृहदारण्यकोपनिषद् -- शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं। उन दोनों का ब्राह्मणग्रन्व 'शतपथ' हैं। इसके अन्तिम छ: अध्यायों को वृहदारण्यक या बृहदारण्य कोपनिषद् कहते हैं । इसका 'बृहत्' नाम अन्वर्थ है, क्योंकि आकार में यह सबसे बड़ी उपनिषद् है। इसमें भी सृष्टि और ब्रह्म का विस्तार से निरूपण किया गया है ।
है।
११. कौषीतकि उपनिषद् - यह ऋग्वेदीय उपनिषद् वेद के कोपीतकि ब्राह्मण का एक भाग आर यक कहा जाता है, जिसमें पन्द्रह अध्याय हैं । इनमें से तीसरे और छठे अध्याय को मिलाकर कौषीतकि उपनिषद् कही जाती है। कुक्षीतक नामक ऋषि ने इसका उपदेश किया था, अतः इसका नाम 'कौषीतकि' पड़ा। इसका एक दूसरा नाम कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् भी है। यह भी एक बृहदाकार उपनिषद् है ।
१२. श्वेताश्वतरोपनिषद् - यह कृष्ण यजुर्वेद की उपनिषद् है और इस वेद के श्वेताश्वतर ब्राह्मण का एक भाग है। इसमें छ: अध्याय हैं जिनमें ब्रह्मविद्या का बहुत हृदयग्राही विवेचन पाया जाता है ।
इन उपनिषदों के अतिरिक्त बहुसंख्यक परवर्ती उपनिपदें हैं। एक परवर्ती उपनिषद् मुक्तिकोपनिषद् में १०८ उपनिषदों की सूची है । इन सभी उपनिषदों का संग्रह निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से गुटका के रूप में प्रका शित है। अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से प्रकाशित उपनिषद् संग्रह में १७९ उपनिषदें हैं । बम्बई के गुजराती प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित 'उपनिषद्वाक्यमहाकोश' में २२३ उपनिषद्ग्रन्थों का नामोल्लेख है । उपनिषदों को कालक्रम के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है( १ ) प्राचीन उपनिषद् और ( २ ) परवर्ती उपनिषद् | प्राचीन वैदिक शाखाओं पर आधारित है; परवर्ती साम्प्र दायिक हैं। मध्य युग में धार्मिक सम्प्रदायों ने अपनी
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