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उभयद्वादशो-उमापति शिवाचार्य
१२५ उब्बट ने ऋक्संहिता का कोई भाष्य किया है या नहीं, तपस्या से रोका । इसके अनन्तर उसका नाम ही उमा परन्तु उब्बट का शुक्ल यजुर्वेद संहिता पर एक भाष्य हो गया। ] पाया जाता है । इसके सिवा इन्होंने ऋप्रातिशाख्य और उमागुरु-पार्वती का पिता हिमालय। दक्ष प्रजापति के शुक्ल यजुर्वेदप्रातिशाख्य पर भी भाष्य लिखे हैं।
यज्ञ में शिव की निन्दा सुनने से योग के द्वारा शरीर उभयद्वादशी-यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ त्यागने वाली सती हिमालय से मेनका के गर्भ में उत्पन्न होता है। इसके पश्चात् पौष शुक्ल से द्वादशी हुई । इस कथानक का पुराणों में विस्तृत वर्णन है। एक वर्षपर्यन्त कुल चौबीस द्वादशियों को इस व्रत का उमाचतुर्थी-माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का आचरण अनुष्ठान किया जाता है। इन तिथियों को विष्णु के होता है। इसमें उमा के पूजन का विधान है। पुरुष और चौबीस अवतारों ( केशव, नारायण आदि ) का पूजन विशेष रूप से स्त्रियाँ कुन्द के पुष्पों से भगवती उमा का किया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड ।
पूजन करती तथा उस दिन व्रत भी रखती हैं । उभयनवमी-यह व्रत पौष शुक्ल नवमी को प्रारम्भ होता उमानन्द नाथ-दक्षिणमार्गी शाक्तों में तीन आचार्यों का है । इसमें एक वर्ष पर्यन्त चामुण्डा का पूजन होता है। नाम उनकी देवीभक्ति की दृष्टि से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न उपकरणों से देवी की प्रतिमा ये हैं नृसिंहानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ एवं उमानन्द का निर्माण करके भिन्न भिन्न नामों से उनकी पूजा की नाथ, जो एक छोटी गुरुपरम्परा उपस्थित करते हैं । जाती है। कतिपय दिवसों में महिष का मांस समर्पित तीनों में सबसे अधिक प्रसिद्ध भास्करानन्द नाथ थे जिनके करते हुए रात्रि में पूजन करने तथा प्रत्येक नवमी को शिष्य उमानन्द नाथ हुए । उमानन्द नाथ ने 'परशुरामकन्याओं को भोजन कराने का विधान है । दे० कृत्यकल्प- भार्गवसूत्र' पर एक व्यावहारिक भाष्य लिखा है । तरु का व्रतकाण्ड, २७४-२८२।।
उमापति-उमा के पति शिव । महाभारत में कथन है : उभयसप्तमी-यह व्रत शुक्ल पक्ष की किसी सप्तमी में तप्यते तत्र भगवान् तपो नित्यमुमापतिः ।। प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में सूर्य वहाँ पर भगवान् शिव नित्य तपस्या करते हैं ।] देवता के पूजन का विधान है । एक मत के अनुसार यह उमापतिधर-कृष्णभक्ति शाखा के कवियों में उमापतिधर व्रत माघ शुक्ल सप्तमी से प्रारम्भ होना चाहिए । एक वर्ष
का नाम भी उल्लेखनीय है । इन्होंने मैथिली एवं बंगला पर्यन्त प्रत्येक मास में सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन ___भाषा में कृष्ण-सम्बन्धी गीत लिखे हैं। ये तिरहुतनिवासी करने का विधान है । दे० भविष्योत्तर पुराण, ४७.१.२४ और विद्यापति के समकालीन थे। उभयैकादशी-यह व्रत मार्गशीर्ष की शुक्ल एकादशी से उमापति शिवाचार्य-तमिल शैवों में 'चार संतान आरम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में विष्णु आचार्य,' नाम प्रसिद्ध हैं। ये है मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, का भिन्न भिन्न नामों (जैसे केशव, नारायण आदि) मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति शिवाचार्य । उमापति से पूजन होता है । दे० व्रतार्क, २३३ ब-२३७ अ । गुर्जरों ब्राह्मण थे एवं चिदम्बर मन्दिर के पुजारी थे। ये मरइ में इस व्रत का नाम केवल 'उभय' है।
ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य बन गये. जो शद्र थे। उमापति उमा-शिव की पत्नी, पार्वती। उमा का शाब्दिक अर्थ उनका उच्छिष्ट खाने के कारण जाति से बहिष्कृत हुए। है 'प्रकाश' । सर्वप्रथम केन उपनिषद् में उमा का उल्लेख किन्तु अपने सम्प्रदाय के ये बहुत बड़े आचार्य बन गये एवं हुआ है । यहाँ ब्रह्मा तथा दूसरे देवताओं के बीच माध्यम बहुत से ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया । इनमें से आठ के रूप में इनका आविर्भाव हुआ है। इस स्थिति में ग्रन्थ सिद्धान्तशास्त्रों में परिगणित हैं । वे हैं (१) शिववाक् देवी से इनका अभेद जान पड़ता है ।
प्रकाश, (२) तिरुअकुलपयन, (३) विनावेवा, (४) पोत्रपउमा शब्द की व्युत्पत्ति कुमारसम्भव में इस प्रकार क्रोदइ, (५) कोडिकवि, (६) नेविडुतूतु, (७) उण्मैनेऋदी हुई है :
विलक्कम और (८) संकल्पनिराकरण । उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यांसुमुखी जगाम। उमामहेश्वरव्रत-(१) इसे प्रारम्भ करने की तिथि के ["उ”, “मा" यह कहकर माता (मेनका) ने उसे बारे में कई मत हैं । इसे भाद्रपद की पूर्णिमा से प्रारम्भ
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