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उमापति-ऊर्ध्वपुण्ड
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अर्धास्तमयात् संध्या व्यक्तीभूता न तारका यावत् ।
पञ्चप्राणयुतं वर्ण पीतविद्युल्लता तथा । तेजःपरिहानिरुषा भानोर|दयं यावत् ।।
धर्मार्थकाममोक्षञ्च सदा सुखप्रदायकम् ।। [सूर्य के अर्धास्तमन से लेकर जब तक तारे न दिखाई
[ऊ अक्षर शख तथा कुन्द के समान श्वेतवर्ण का है। दें इस बीच के समय को सन्ध्या कहते हैं तथा ताराओं
परम कुण्डलिनी (शक्ति का अधिष्ठान) है। यह पञ्च प्राणके तेज के मन्द होने से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक के
मय तथा पञ्च देवमय है। पांच प्राणों से संयुक्त यह वर्ण समय को उषःकाल कहते हैं।]
पीत विद्युत् की लता के समान है। धर्म, अर्थ, काम, उषापति-उषा का पति अनिरुद्ध । यह कामदेव के अवतार मोक्ष और सुख को सदा देनेवाला है । ] वर्णोद्धारतन्त्र में प्रद्युम्न यादव का पुत्र माना जाता है । उषा बाणासुर की इसके निम्नलिखित नाम है : पुत्री थी। पहले दोनों का गान्धर्व विवाह हुआ था, पुनः ऊः कण्ठको रतिः शान्तिः क्रोधनो मधुसूदनः । कृष्ण-बलराम आदि ने युद्ध में बाणासुर को पराजित कर
कामराजः कुजेशश्च महेशो वामकर्णकः ।। उसे धूम-धाम के साथ विवाह करने को विवश कर दिया।
अर्धीशो भैरवः सूक्ष्मो दीर्घघोषा सरस्वती। (आधुनिक विचारकों के अनुसार बाणासुर असीरिया देश विलासिनी विघ्नकर्ता लक्ष्मणो रूपकर्षिणी।। का प्रतापी शासक था ।)
महाविद्यश्वरी षष्ठा षण्ढो भूः कान्यकुब्जकः ॥ उष्णीष-शिरोवेष्टन, वैदिक भारतीयों द्वारा व्यवहृत पगड़ी,
ऊर्णा-ऊन; भेड़ आदि के रोम । भौंहों का मध्यभाग भी जिसे पुरुष अथवा स्त्री समान रूप से व्यवहार करते थे ।
ऊर्णा कहलाता है। दोनों भौंहों के मध्य में मृणालतन्तुओं दे० ऐ० ब्रा०, ६.१; शत० ब्रा०, ३.३; २. ३; ४. ५. २.
के समान सूक्ष्म सुन्दर आकार को उठी हुई रेखा महा७२.१.८ (इन्द्राणी का उष्णीष) आदि एवं काठक संहिता,
पुरुषों का लक्षण है। यह चक्रवर्ती राजा तथा महान् १३.१० । व्रात्यों के उष्णीष का अथर्ववेद (१५.२.१) एवं
योगियों के ललाट में भी होती है। योगमूर्तियों के ललाट पञ्चविंश ब्रा० (१७.१.१४;१६. ६. १३) में प्रचुर उल्लेख
में ऊर्णा अङ्कित को जाती है । वह ध्यान का प्रतीक है। मिलता है। वाजपेय (शतपथ ब्रा० ५.३.५. ३३) तथा राजसूय (मैत्रायणी सं० ४.४.३) यज्ञों में राजपद के
ऊर्णनाभ-एक प्राचीन निरुक्तकार, जिनका उल्लेख यास्क चिह्न रूप में राजा द्वारा उष्णीष धारण किया जाता था।
ने निघण्टु की व्याख्या में किया है। शिरोभूषा के रूप में देवताओं को भी उष्णीष दिखलाया ऊर्ध्वपुण्ड-चन्दन आदि के द्वारा ललाट पर ऊपर की जाता है । भावप्रकाश में कथन है :
ओर खींची गयी पत्राकार रेखा । यथा : उष्णीषं कान्तिकृत केश्यं रजोवातकफापहम् । ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्याद्वारिमृद्भस्मचन्दनः । लघु चेच्छस्यते यस्माद् गुरु पित्ताक्षिरोगकृत् ।।
[ब्राह्मण जल, मिट्टी, भस्म और चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड [पगड़ी शोभा बढ़ाती है और बालों का हित करती
तिलक करे। है । वात, पित्त, कफ सम्बन्धी रोगों से बचाती है । छोटी
ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्यात् क्षत्रियस्तु त्रिपुण्ड्रकम् । पगड़ी अच्छी होती है, बड़ी पगड़ी पित्त तथा आँखों के
अर्द्धचन्द्रन्तु वैश्यश्च वर्तुलं शूद्रयोनिजः ।। रोगों को बढ़ाती है।
[ ब्राह्मण ऊर्ध्वपुण्ड्र, क्षत्रिय त्रिपुण्ड्र, वैश्य अर्धचन्द्र, उष्णीष धारण माङ्गलिक माना जाता है । शुभ अवसरों
शूद्र वर्तुलाकार चन्दन लगाये । ] पर इसका धारण शिष्टाचार का एक आवश्यक अङ्ग है ।
विविध आकारों में सभी सनातनधर्मी व्यक्तियों द्वारा
तिलक लगाया जाता है । किन्तु ऊर्ध्वपुण्ड्र वैष्णव सम्प्रदाय ऊ-स्वरवर्ण का षष्ठ अक्षर । कामधनुतन्त्र में इसका तन्त्रा- का विशेष चिह्न है। वासुदेव तथा गोपीचन्दन उपनिषदों त्मक महत्त्व निम्नांकित है :
(भागवत ग्रन्थों) में इसका प्रशंसात्मक वर्णन पाया जाता शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डलो ।
है। यह गोपीचन्दन से ललाट पर एक, दो या तीन खड़ी पञ्चप्राणमयं वर्ण 'पञ्चदेवमयं सदा ॥
लम्ब रेखाओं के रूप में बनाया जाता है।
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