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ऋक्ष-ऋग्वेद
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पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निघण्टु की टीका वेदविशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं। भाष्य करने वाले एक स्कन्दस्वामी के नाम से भी पायी वेदाध्ययन के लिए अत्यन्त पूर्वकाल में ऋषियों ने पढ़ने की। जाती है। सायणाचार्य वेद के परवर्ती भाष्यकार है। ध्वनि, अक्षर, स्वरादि विशेषता का निश्चय करके अपनी- यास्क के समय से लेकर सायण के समय तक विशेष रूप अपनी शाखा की परम्परा निश्चित कर दी थी। इस से कोई भाष्यकार प्रसिद्ध नहीं हुआ। विभेद को स्मरण रखने और अपनी परम्परा की रक्षा के वेदान्तमार्गी लोग संहिता की व्याख्या की ओर विशेष लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बने । इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा
रुचि नहीं रखते, फिर भी वैष्णव संप्रदाय के एक आचार्य तथा व्याकरण दोनों पाये जाते हैं।
आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य स्वामी) ने ऋग्वेदसंहिता के कुछ एक समय था जब वेद की सभी शाखाओं के प्राति- अंशों का श्लोकमय भाष्य किया था। फिर रामचन्द्र तीर्थ शाख्यों का प्रचलन था और सभी उपलब्ध भी थे । परन्तु ने उस भाष्य की टीका रची थी । सायण ने अपने विस्तृत अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्
'ऋग्भाष्य' में भट्टभास्कर मिश्र और भरतस्वामी-वेद के प्रातिशाख्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का तैत्तिरीय
दो भाष्यकारों का उल्लेख किया है। कतिपय अंश चण्डू प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायनरचित वाज
पण्डित, चतुर्वेद स्वामी, युवराज रावण और वरदराज के सनेय प्रातिशाख्य, सामवेद का पुष्यमुनि रचित सामप्राति
भाष्यों के भी पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त मुद्गल, शाख्य और अथर्वप्रातिशाख्य वा शौनकीय चतुरध्यायी
कपर्दी, आत्मानन्द और कौशिक आदि कुछ भाष्यकारों उपलब्ध हैं। शौनक के ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, के नाम भी सुनने में आते हैं। छः पटल और १०३ कण्डिकाएँ हैं। इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नामक एक ग्रन्थ मिलता है। ऋग्वेद-वेद चार हैं, उनमें से ऋग्वेद सबसे प्रमुख और पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था। इसको देखकर
मौलिक है । क्योंकि सम्पूर्ण सामवेद और यजुर्वेद का पद्याउबटाचार्य ने इसका विस्तृत भाष्य लिखा है।
त्मक अंश तथा अथर्ववेद के कतिपय अंश ऋग्वेद से ही ऋक्ष-रीछ या भालू । ऋग्वेद में ऋक्ष शब्द एक बार तथा
लिये गये हैं। पातञ्जल महाभाष्य (पस्पशाह्निक) के अनुपरवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित् ही प्रयुक्त हुआ है।
सार ऋग्वेद की इक्कीस संहिताएँ थीं। किन्तु आजकल स्पष्टतः यह जन्तु वैदिक भारत में बहुत कम पाया जाता।
केवल एक ही शाकल संहिता उपलब्ध है जिसमें १०२८ था। इस शब्द का बहुवचन में प्रयोग 'सप्त ऋषियों'
सुक्त (११ वालखिल्यों को लेकर) है । शाकल संहिता का के अर्थ में भी कम ही हुआ है। ऋग्वेद में दानस्तुति के
दो प्रकार से विभाजन किया गया है । प्रथमतः यह मण्डल, एक मन्त्र में 'ऋक्ष' एक संरक्षक का नाम है, जिसके पुत्र
अनुवाक और वर्ग में विभाजित है, जिसके अनुसार इसमें आर्भ का उल्लेख दूसरे मन्त्र में आया है।
१० मण्डल, ८५ अनुवाक और २००८ वर्ग है। दूसरे परवर्ती काल में नक्षत्रों के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ विभाजन के अनुसार इसमें ८ अष्टक, ६४ अध्याय और है। रामायण तथा पुराणों की कई गाथाओं में ऋक्ष एक
१०२८ सूक्त हैं । प्रत्येक सूक्त के ऋषि, देवता और छन्द जाति विशेष का नाम है। ऋक्षों ने रावण से युद्ध करने
विभिन्न है । ऋषि वह है जिसको मन्त्र का प्रथम साक्षामें राम की सहायता की थी।
त्कार हुआ था। (आधुनिक भाषा में ऋषि वह था जिसने
उस सूक्त की रचना की अथवा परम्परा से उसे ग्रहण ऋग्विधान-इस ग्रन्थ की गणना ऋग्वेद के पूरक साहित्य
किया था ।) सूक्त का वर्णनीय विषय देवता होता है । में की जाती है । इसके रचयिता शौनक थे ।
छन्द विशेष प्रकार का पद्य होता है जिसमें सूक्त की ऋग्भाष्य-ऋग्वेद के ऊपर लिखे गये भाष्यसाहित्य का
रचना हुई है। सामूहिक नाम ऋग्भाष्य है। ऋग्वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन समझे जाते व्याख्यान और अध्यापन के क्रम से ऋग्वेद की है । एक निघण्टु है और दूसरा यास्क का निरुक्त । देवराज पाँच शाखाएं बतलायी गयी हैं-(१) शाकल, (२) यज्वा निघण्टु के टीकाकार हैं। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर वाष्कल, (३) आश्वलायन, (४) शालायन और
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