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उपभोग-उपरिचरवसु
१९. वासिष्ठ २५. देवी
ये माता के तुल्य ही पूजनीय हैं। इनका अनादर करने २०. कौम २६. बृहद्धर्म
से पाप होता है। २१. भार्गव २७. परानन्द
उपमान-न्यायदर्शन के अनुसार तीसरा प्रमाण । गौतम ने २२. आदि २८. पशुपति
चार प्रमाण माने है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और २३. मुद्गल २९. हरिवंश
शब्द । किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई २४. कल्कि
वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है, वही उपमान है। वैष्णव लोग भागवत पुराण को उपपुराण न मानकर जैसे, "नीलगाय गाय के सदृश होती है।" महापुराण मानते हैं।
उपयम-विवाह, पाणिग्रहण । दे० 'विवाह' । व्यासप्रणीत अठारह महापुराणों के सदृश अनेक मुनियों उपयाचित-इष्टसिद्धि के प्रयोजन से देवता के लिए देय द्वारा प्रणीत अठारह उपपुराण भी कहे गये हैं :
वस्तु । उसका पर्याय है 'दिव्यदोहद ।' प्रार्थित वस्तु को भी अन्यान्युपपुराणानि मुनिभिः कथितान्यपि ।
उपयाचित कहते हैं । आद्यं सनत्कुमारोक्तं नारसिंहं ततः परम् ॥ उपरतस्पृह-निःस्पृह, निष्काम, जिसकी धन आदि की तृतीयं वायवीयञ्च कुमारेण च भाषितम् ।
इच्छा समाप्त हो गयी है। धन रहने पर भी धन की चतुर्थ शिवधर्माख्यं साक्षान्नन्दीशभाषितम् ।। इच्छा से रहित व्यक्ति उपरतस्पृह कहा जाता है। यह दुर्वाससोक्तमाश्चर्य नारदीयमतः परम् । साधक का एक विशिष्ट गुण है। नन्दिकेश्वरयुग्मञ्च तथैवोशनसेरितम् ॥ उपरति-विरक्त होना, विरति । जैसे, मार्कण्डेय पुराण कापिलं वारुणं साम्बं कालिकायमेव च ।
(९१.८) में कहा है : माहेश्वरं तथा कल्कि दैवं सर्वार्थसिद्धिदम ।।
'विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि! नमोस्तु ते।' पराशरोक्तमपरम् प्रारीचं भास्कराह्वयम् ।
[विश्व की विरति में समर्थ हे नारायणि, तुमको [ मुनियों के द्वारा कहे गये अन्य उपपुराण हैं । सनत्
नमस्कार है। ] जितेन्द्रियों की विषयों से उपरति एक
साधन माना जाता है। कुमार द्वारा कहा गया प्रथम, नरसिंह द्वारा द्वितीय, कुमार द्वारा कहा गया वायवीय, साक्षात् नन्दीश द्वारा कहा गया
उपराग-एक ग्रह पर दूसरे ग्रह की छाया, राहुग्रस्त चन्द्र, शिवधर्माख्य, दुर्वासा द्वारा कहा गया आश्चर्य, नारदीय,
अथवा राहुग्रस्त सूर्य आदि। निकट में होने के कारण नन्दिकेश्वर, औशनस, कापिल, वारुण, साम्ब, कालिका,
अपने गुणों का अन्य के गुणों में आरोप भी उपराग है ।
जैसे स्फटिकमणि के खम्भों में लाल फूलों के लाल रंग माहेश्वर, कल्कि, दैव, पाराशर, मारीच और सौरपुराण
का आरोप । दुर्नय, व्यसन आदि भी इसके अर्थ हैं। ये अष्टादश उपपुराण कहे गये हैं। ] दे० कूर्मपुराण,
उपरिचर वसु-पाश्चरात्र धर्म का प्रथम अनुयायी उपरिचर मलमासतत्त्व में उद्धृत । उपभोग-भोजन के अतिरिक्त भोग्यवस्तु । इसका पर्याय है।
वसु था। इसकी कथा नारायणीय आख्यान में आयी है। निवेश।
यह शान्तिपर्व के ३१४ वें अध्याय से ३५१ वें अध्याय न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
के अन्त तक वणित है। नारायणीयाख्यान शान्ति
(मनु २.९४) पर्व का अन्तिम प्रतिपाद्य विषय है। वह बेदान्त आदि [ कभी भी काम की शान्ति कामों के उपभोग से नहीं मतों से भिन्न और अन्तिम ही माना गया है। इस मत हो सकती।]
के मूल आधार नारायण हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में उपमाता-माता के समान, धात्री । यह स्मृति में छः प्रकार सनातन विश्वात्मा नारायण से नर, नारायण, हरि और की कही गयी है :
कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुई। नर-नारायण ऋषियों ने मातुःष्वसा मातुलानी पितृव्यस्त्री पितृष्वसा । बदरिकाश्रम में तप किया । नारद ने वहाँ जाकर उनसे श्वश्रूः पूर्वजपत्नी च माततुल्याः प्रकीर्तिताः ।। प्रश्न किया। उत्तर में उन्होंने यह पाञ्चरात्र धर्म सुनाया। [ माता की बहिन, मामी, चाची, पिता की बहिन, इस धर्म का पहला अनुयायी राजा उपरिचर वसु था । सास, बड़े भाई की पत्नी ये माता के समान होती हैं। ] इसी ने पाञ्चरात्र विधि से नारायण की पूजा की।
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