________________
उपलेख-उपवेद
१२१
उपलेख-ऋक्संहिता का एक प्रातिशाख्य सूत्र शौनक का बनाया कहा जाता है। प्रातिशाख्य सूत्र के आधार पर निर्मित 'उपलेख' नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ है। इसको प्रातिशाख्य सूत्र का परिशिष्ट भी कहते हैं। उपलेखसूत्र-शौनक के ऋक्प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेखसुत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था, उसको देखकर उठवटाचार्य ने एक विस्तृत भाष्य लिखा है।
उपवर्ष-आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहीं-कहीं उपवर्ष नामक एक प्राचीन वृत्तिकार के मत का उल्लेख किया है। इस वृत्तिकार ने दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्तिग्रन्थ बनाये थे, ऐसा प्रतीत होता है। पण्डित लोग अनुमान करते हैं कि ये 'भगवान् उपवर्ष' वे ही हैं जिनका उल्लेख शबर भाष्य ( मी० सू० १.१.५ ) में स्पष्टतः किया गया है। शङ्कर कहते हैं (ब्र० सू० ३.३.५.३) कि उपवर्ष ने अपनी मीमांसा वृत्ति में कहीं-कहीं पर 'शारीरक सूत्र' पर लिखी गयी वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है। ये उपवर्षाचार्य शबर स्वामी से पहले हुए होंगे, इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु कृष्णदेवनिर्मित 'तन्त्रचूडामणि' ग्रन्थ में लिखा है कि शबर भाष्य के ऊपर उपवर्ष की एक वृत्ति थी। कृष्णदेव के वचन का कोई मूल्य है या नहीं यह कहना कठिन है। यदि उनका वचन प्रामाणिक माना जाय, तो इस उपवर्ष को प्राचीन उपवर्ष से भिन्न मानना पड़ेगा।
वेदान्तदेशिक (श्रीवैष्णव) ने अपनी तत्त्वटीका में बोधायनाचार्य का द्वितीय नाम उपवर्ष प्रतिपादित किया है। शबर स्वामी ने भी बोधायनाचार्य का उल्लेख उपवर्ष नाम से किया है। उपवसथ-निवास स्थान, जहाँ पर आकर बसते हैं। शतपथ ब्राह्मण (११.१.७) में कथन है
'तेऽस्य विश्वेदेवा गृहानागच्छन्ति तेऽस्य गृहेषूपवसन्ति स उपवसथः ।'
उपवास-एक धार्मिक व्रत, रात-दिन भोजन न करना । इसके पर्याय हैं उपवस्त, उपोषित, उपोषण, औपवस्त आदि । इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ।।
[पाप से निवृत्त होकर गुणों के साथ रहने को उपवास कहते हैं, जिसमें सभी विषयों का उपभोग वजित है।] __ इसका शाब्दिक अर्थ है ( उप+वास ) अपने आराध्य के समीप वास करना। इसमें भोजन-पान का त्याग सहायक होता है, अतः इसे उपवास कहते है । उपवीत (यज्ञोपवीत)-एक यज्ञपरक धार्मिक प्रतीक, बायें कन्धे पर रखा हुआ यज्ञसूत्र यज्ञ, सूत्र मात्र । देवल ने कहा है :
'यज्ञोपवीतकं कुर्यात् सूत्राणि नवतन्तवः ।' [यज्ञोपवीत-सूत्र को नौ परतों का बनाना चाहिए।] यज्ञोपवीते द्वे धायें श्रौते स्मातें च कर्मणि । तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्रालाभेऽति दिश्यते ॥ [श्रौत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उत्तरीय वस्त्र के अभाव में तीन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए । ] वर्णभेद से मनु ( २. ४४ ) ने सूत्रभेद भी कहा है : कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत् । शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम् ॥ [ब्राह्मण का यज्ञोपवीत कपास के सूत्र का, क्षत्रिय का शण के सूत्र का, और वैश्य का भेड़ के ऊन का होना चाहिए।] ___आगे चलकर कपास के सूत्र का यज्ञोपवीत सभी वर्गों
के लिए विहित हो गया । दे० 'यज्ञोपवीत' । उपवेद-चरणव्यूह' में वेदों के चार उपवेद कहे गये हैं । ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र । परन्तु सुश्रुत, भावप्रकाश तथा चरक के अनुसार आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है । यह मत सुसंगत जान पड़ता है, क्योंकि अथर्ववेद में आयुर्वेद के तत्त्व भरे पड़े हैं। परिणामस्वरूप अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र को ऋग्वेद का उपवेद मानना पड़ेगा।
उपवेदों का अध्ययन भी प्रत्येक वेद के साथ-साथ वेद के ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक है। चारों उपवेद चार विज्ञान हैं । अर्थशास्त्र में वार्ता अर्थात् लोकयात्रा
[विश्वेदेव इसके घर में आते हैं, वे उसके घर में रहते हैं, उसे उपवसथ कहते हैं। ] याग का पूर्वदिन भी उपवसथ कहलाता है। इस दिन यम-नियम ( उपवास आदि ) के द्वारा यज्ञ की तैयारी की जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org