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उपन्यास-उपनिषद्
दूसरा है ब्रह्मचारी द्वारा सूर्यदर्शन । यह नियम, व्रत उपनिषद्-यह शब्द 'उप + नि+ सद् + विवप्' से बना और उपासना का प्रतीक है ।
है, जिसका अर्थ है (गुरु) के निकट (रहस्यमय ज्ञान की ___ इन प्रतीकात्मक क्रियाओं के बाद आचार्य बालक को प्राप्ति के लिए) बैठना ।' अर्थात् उपनिषद् वह साहित्य ब्रह्मचारी के रूप में स्वीकार करता है और पूछता है,
है जिसमें जीवन और जगत् के रहस्यों का उद्घाटन, "तू किसका विद्यार्थी है ?" वह उत्तर देता है,
निरूपण तथा विवेचन है। वैदिक साहित्य के चार भाग "आपका ।" आचार्य संशोधन करते हुए कहता है, "तू हैं-(१) मन्त्र अथवा संहिता, (२) ब्राह्मण, (३) आरइन्द्र का ब्रह्मचारी है । अग्नि तेरा आचार्य है। मैं तेरा ण्यक तथा (४) उपनिषद् । उपनिषद् वैदिक साहित्य का आचार्य हूँ।"
अन्तिम भाग अथवा चरम परिणति है। मन्त्र अथवा
संहिताओं में मूलतः कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और उपासना यज्ञोपवीत के समान सावित्री (गायत्री मन्त्र भी उप
का प्रतिपादन हुआ है। इन्हीं विषयों का ब्राह्मणों और नयन संस्कार का एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। यह शैक्षणिक तथा बौद्धिक जीवन का मलमन्त्र है। सावित्री
उपनिषदों में विस्तार तथा व्याख्यान हुआ है। ब्राह्मणों
में कर्मकाण्ड का विस्तार एवं व्याख्यान है, आरण्यक को ब्रह्मचारी की माता कहा गया है। आचार्य सावित्री
एवं उपनिषदों में ज्ञान और उपासना का। वैदिक साहित्य मन्त्र का उच्चारण ब्रह्मचारी के सामने करता है :
का अन्तिम भाग होने से उपनिषदें वेदान्त (वेद + अन्त) भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम्,
भी कहलाती हैं, क्योंकि वेदों के अन्तिम ध्येय ब्रह्म का भर्गो देवस्य धीमहि,
उनमें निरूपण है। वेदान्तदर्शन के तीन प्रस्थान हैंधियो यो नः प्रचोदयात् ॥
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता। इनमें उपनिषद् का प्रथम [ यह है (अस्ति)। यह समृद्धि और प्रकाशस्वरूप है।
स्थान है। हम सविता (समस्त सृष्टि को उत्पन्न करने वाले) देव के प्रत्येक वेद की संहिताएं, ब्राह्मण, आरण्यक तथा शुभ्र तेज को धारण करते हैं। वह हमारी बुद्धि को
उपनिषद् भिन्न-भिन्न होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि प्रदीप्त करे।]
चारों वेदों की एक सहस्र एक सौ अस्सी उपनिषदें है__सावित्री के उपदेश के पश्चात आहवनीय अग्नि में। परन्तु इस समय सभी उपलब्ध नहीं हैं । प्रमुख बारह उपआहति, भिक्षाचरण, त्रिरात्र व्रत, मेधाजनन आदि व्रतों निषदें हैं-(१) ईशावास्य (२) केन (३) कठ (४) प्रश्न का ब्रह्मचारी के लिए विधान है । ये सभी शैक्षणिक एवं (५) मुण्डक (६) माण्डूक्य (७) तैत्तिरीय (८) ऐतरेय बौद्धिक महत्त्व के है । उपनयन संस्कार के सभी अङ्ग (९) छान्दोग्य (१०) बृहदारण्यक (११) कौषीतकि और मिलकर एक ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे । (१२) श्वेताश्वतर । इन पर आचार्य शङ्कर के प्रामाणिक ब्रह्मचारी अनुभव करता है कि उसके जीवन में एक नव- भाष्य हैं। अन्य आचार्यों-रामानुज, मध्व, निम्बार्क, युग का प्रादुर्भाव हो रहा है, जहाँ उसके बौद्धिक एवं
वल्लभ आदि ने भी अपने-अपने साम्प्रदायिक भाष्य इन भावनात्मक विकास की अनन्त सम्भावना है।
पर लिखे हैं। सभी सम्प्रदाय अपने मत का मूल उपनिउपन्यास-वास्योपक्रम, परिचयात्मक वचन, आरम्भिक
षदों में ही ढूढ़ते है। अतः अपने सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा
के लिए प्रत्येक आचार्य को उपनिषदों पर भाष्य लिखना वस्तुवर्णन, यथा
आवश्यक हो गया था। मुख्य उपनिषदों का परिचय नीचे 'ब्रह्मजिज्ञासोपन्यासमुखेन ।' (शारीरक भाष्य)
दिया जा रहा है : [ब्रह्मजिज्ञासा के प्राथमिक उल्लेख द्वारा। इसका
१. ईशावास्य-इस उपनिषद् का यह नाम इस दूसरा अर्थ 'विचार' है, जैसा कि मनु ने कहा है :
लिए है कि इसका प्रथम मन्त्र 'ईशावास्यमिदं सर्वम्...' विश्वजन्यमिमं पुण्यमपन्यासं निबोधत ।
से प्रारम्भ होता है। यह यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय [ कहे जा रहे, सर्वजनहितकारी पवित्र विचार है। इसमें सब मिलाकर केवल अठारह मन्त्र हैं। परन्तु को सुनो।]
संक्षेप से इनमें उपनिषदों के सभी विषयों का बहुत
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