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उपदेशरत्नमाला-उपनयन
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उपदेशरत्नमाला-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ, जो तमिल भाषा में लिखा गया है । इसके रचयिता गोविन्दाचार्य का जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में माना जाता है। उपदेशसाहस्री-शङ्कराचार्य द्वारा रचित अद्वैत वेदान्त का एक प्रधान ग्रन्थ । महात्मा रामतीर्थ ने इस ग्रन्थ पर ‘पदयोजनिका' नामक टीका का निर्माण किया । शङ्करा- चार्य के वेदान्त सम्बन्धी सिद्धान्तों का इसमें एक सहस्र श्लोकों में संक्षिप्त सार है। उपदेशामत-जीव गोस्वामी (सोलहवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न) द्वारा रचित ग्रन्थों में से एक । यह ग्रन्थ इनके अचिन्त्यभेदाभेदवाद (चैतन्यमत) के अनुसार लिखा गया है । ग्रन्थकर्ता प्रसिद्ध भक्त और गौड़ीय वैष्णवाचार्य रूप और सनातन गोस्वामी के भतीजे थे । चैतन्यदैव के अन्तर्धान के बाद जीव गोस्वामी वृन्दावन चले आये और यहीं पर इनकी प्रतिभा का विकास हुआ। फलतः इन्होंने भक्तिमार्ग के अनेक ग्रन्थ प्रस्तुत कर बंगाल में वैष्णव धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को उधर भेजा था। उपदेष्टा-उपदेश देने वाला । यह गुरुवत् पूज्य है :
तथोपदेष्टारमपि पूजयेच्च ततो गुरुम् । न पूज्यते गुरुयंत्र नरैस्तत्राफला क्रिया ।।
(बृहस्पति) [उपदेशक गुरु की वैसी ही पूजा करनी चाहिए जैसे गुरु की। जहाँ मनुष्य गुरु की पूजा नहीं करते वहाँ क्रिया विफल होती है।] उपधर्म-हीन धर्म अथवा पाखण्ड । मनुस्मृति ( २.३३७) में कथन है :
एष धर्मः परः साक्षाद् उपधर्मोऽन्य उच्यते । [ यह साक्षात् परम धर्म है और अन्य (इससे विरुद्ध) उपधर्म कहा गया है। ] उपधा-राजाओं द्वारा गुप्त रूप से मन्त्रियों के चरित्र की परीक्षा । प्राचीन राजशास्त्र में उपधाशुद्ध मन्त्रीगण श्रेष्ठ या विश्वस्त माने जाते थे। उपधि-छल, धोखा, कपट :
'यत्र वाप्यपधि पश्येत तत्सर्वं विनिवर्तयेत ।'
[जहाँ कपटपूर्वक कोई वस्तु बेंची या दी गयी हो वह सब लौटवा देनी चाहिए । ] किरात० (१,४५) में भी कहा गया है :
अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा
विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि । [विजय का इच्छुक राजा कपटपूर्वक शत्रुओं के साथ की हुई सन्धि को भङ्ग कर देता है । ] उपनय-विशेष कर्मानुष्ठान के साथ गुरु के समीप में ले जाना । यथा :
गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गरोः । बालो वेदाय तद्योगाद् बालस्योपनयं विदुः ।।
(स्मृति) [ वेदज्ञान के लिए गृह्यसूत्र में कहे गये कर्म के द्वारा बालक को जो गुरु के पास लाया जाता है उसे उपनय कहते हैं।]
तकशास्त्र में हेतु के बल से किसी निश्चय पर पहुँचना भी उपनय कहलाता है। उपनयन-एक धार्मिक कृत्य, जिसके द्वारा बालक को आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए ले जाते हैं। इसके कई पर्याय हैं-(१) वटूकरण, (२) उपनाय, (३) उपनय, (४) आनय आदि । संसार की सभी जातियों में बालक को जाति की सांस्कृतिक सम्पत्ति में प्रवेश कराने के लिए कोई न कोई संस्कार होता है। हिन्दुओं में इसके लिए उपनयन संस्कार है । ऐसा माना जाता है कि इससे बालक का दूसरा जन्म होता है और इसके पश्चात् वह सूक्ष्म ज्ञान और संस्कार को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है । माता-पिता से जन्म शारीरिक जन्म है। आचार्यकुल (गरुकुल) में ज्ञानमय जन्म बौद्धिक जन्म है। मनुस्मृति (२.१७०) में कथन है :
तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौजीबन्धनचिह्नितम् । तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।। [ मुंज की करधनी से चिह्नित बालक का जो ब्रह्म(ज्ञान) जन्म है, उसमें उसकी माता सावित्रो (गायत्री मन्त्र) और पिता आचार्य कहा जाता है। ] इस संस्कार से बालक 'द्विज' (दो जन्म वाला) होता है । जो जड़ता अथवा मूढ़ता से यह संस्कार नहीं कराता वह व्रात्य अथवा वृषल है।
उपनयन का उद्देश्य है बालक के ज्ञान, शौच और
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