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उवसेविका-उन्मै विलक्कम
आप मेरा तिरस्कार कर छिप गये हैं। किन्तु बौद्धों चार नैयायिकों का उल्लेख करते हुए इन्हें ईसा की छठी (नास्तिकों) का सामना होने पर आपकी सत्ता मेरे तर्कों शताब्दी में उत्पन्न बताया है। उद्योतकर ने प्रसिद्ध बौद्ध से ही सिद्ध हो सकती है।]
नैयायिक दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रन्थ का उदसेविका-यह उत्सव ठीक उसी प्रकार मनाया जाता है खण्डन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया है। जैसे भूतमात उत्सव होता है। यह एक शाक्त तान्त्रिक इनका एक नाम भरद्वाज भी है तथा इन्हें पाशुपताचार्य प्रक्रिया है। इन्द्रध्वजोत्सव के अवसर पर ध्वज को भी कहा गया है, जिससे इनके पाशुपत शैव होने का अनुउतार लेने के पश्चात् इसका आचरण किया जाना मान लगाया जाता है। चाहिए। यह भाद्रपद शक्ल पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता उन्मत्तभैरवतन्त्र-तन्त्रशास्त्र के मौलिक ग्रन्थ शिवोक्त था । इसकी समानता कुछ अंशों में रोम की रहस्यात्मक
कहे गये हैं। 'तन्त्र' अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है । 'बैकानेलिया' (होली जैसी रागात्मक चेष्टाओं) से की जा
यथार्थतः दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा किसी के सामने सकती है। स्कन्द पुराण में थोड़ी भिन्नता के साथ इस
यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए । 'आगमतत्त्वव्रत का वर्णन किया गया है । इस विषय में मतभेद है कि
विलास' में ६४ तन्त्रों की सूची दी हुई है, जिसमें 'उन्मत्त उत्सव कब और कहाँ आयोजित किया जाय । प्रायः यह
भैरव' चौतीसवाँ है। आगमतत्त्वविलास की सूची के पूर्णिमान्त में होता था। अब इसका प्रचार प्रायः बन्द है।
सिवा अन्य बहुत से स्थानों पर इस तन्त्र का उल्लेख उदासी-सिक्खों के मुख्य दो सम्प्रदाय हैं : (१) सहिजधारी
हुआ है। और (२) सिंह । सहिजधारियों एवं सिंहों के भी कई
उन्मनी-हठयोग की मुद्राओं में से एक मुद्रा। इसका उपसम्प्रदाय है। उदासी (संन्यासमार्गी) सहिजधारी
शाब्दिक अर्थ है 'विरक्त अथवा उदासीन होना' । संसार शाखा के हैं। इस मत (उदासीन) के प्रवर्तक नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे। इस मत का प्रारम्भ लगभग १४३९ ई० में
से विरक्ति के लिए इस मुद्रा का अभ्यास किया जाता
है। इसमें दृष्टि को नासाग्र पर केन्द्रित करते हैं और हुआ। श्रीचन्द्र ने नानक के मत को कुछ व्यापक रूप देकर यह नया मत चलाया, जो सनातनी हिन्दुओं के
भृकुटि (भौंह) का ऊपर की ओर प्रक्षेप करते हैं । गोरख, निकट है।
कबीर आदि योगमार्गी सन्तों ने साधना के लिए इस उद्गीथ-ओंकारसंपुटित सामगान की विशेष रीति :
मुद्रा को बहुत उपयोगी माना है। 'गोरखबानी' में निम्नां
कित वचन पाये जाते हैं : 'ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ।' ( छान्दोग्य उ० ) अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखा प्रदेशे महान्त उद्गीथविदो वसन्ति ।
तुटी डोरी रस कस बहै । (उत्तर चरित)
उन्मनी लागा अस्थिर रहै ।। उद्गीता आगम-आगमों का प्रचलन शव सम्प्रदाय के
उन्मनि लागा होइ अनन्द । इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है । परम्परा
तूटी डोरी विनसै कन्द । के अनुसार २८ आगम हैं, जिन्हें शैविक एवं रौद्रिक दो कबीर ने भी कहा है (कबीरसाखी संग्रह) : वर्गों में बांटा गया है। 'उद्गीता' अथवा 'प्रोद्गीता हँसै न बोलै उन्मनी, चंचल मेल्या भार । आगम' रौद्रिक आगम है।
कह कबीर अन्तर बिंधा, सतगुर का हथियार । उद्योतकर-न्यायदर्शन के विख्यात व्याख्याता । गौतम उन्मैविलक्कम्-शैव सिद्धान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । ऋषि के न्यायसूत्रों पर वात्स्यायन का भाष्य है । इस तमिल शैवों में मेयकण्ड देव की प्रचुर प्रसिद्धि है । इन्होंने भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में उत्तर भारत में रचे गये व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका' बारह संस्कृत सूत्रों का तमिल पद्य में अनुवाद किया। के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयना- ये संमान्य आचार्य भी थे और इनके अनेक शिष्य थे चार्यकृत 'तात्पर्यपरिशुद्धि' है । वासवदत्ताकार सुबन्धु ने जिनमें से एक शिष्य मान वाचकम कण्डदान की प्रसिद्धि मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीति और उद्योतकर इन 'उन्मविलक्कम्' नामक भाष्य के कारण बहुत अधिक
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