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अहिंसाव्रत अहिर्बुध्न्यस्नान
दोनों के विशेष गुण बतलाये गये हैं । जैन धर्म ने अहिंसा को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया । पञ्च महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह में इसको प्रथम स्थान दिया गया है। योगदर्शन के पञ्च यमों में भी अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया गया है :
'तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।
यह सिद्धान्त सभी भारतीय सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य था, किन्तु रूप इसके भिन्न-भिन्न थे । जैन धर्म ऐकान्तिक अहिंसा को स्वीकार किया, जिससे उसमें कृच्छ्राचार बढ़ा। प्रारम्भिक बौद्धों ने भी इसे स्वीकार किया, किन्तु एक सीमारेखा खींचते हुए, जिसे हम साधारण की संज्ञा दे सकते हैं, अर्थात् तर्कसंगत एवं मानवता संगत अहिंसा । अशोक ने अपने प्रथम व द्वितीय शिलालेख में अहिंसा सिद्धान्त को उत्कीर्ण कराया तथा इसका प्रचार किया । उसने मांसभक्षण का क्रमशः परित्याग किया और विशेष पशुओं का तथा विशेष अवसरों पर सभी पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया । कस्सप ने ( आमगन्धत) में कहा है कि मांस भक्षण से नहीं, अपितु बुरे कार्यों से मनुष्य बुरा बनता है । बौद्धधर्म के एक लम्बे शासन के अन्त तक यज्ञों में पशुवध बन्द हो चुका था। एक बार फिर उसे सजीव करने की चेष्टा 'पशुयाग' करने वालों ने की, किन्तु वे असफल रहे ।
वैष्णव धर्म पूर्णतया अहिंसावादी था। उसके आचार, आहार और व्यवहार में हिंसा का पूर्ण त्याग निहित था। इसके विधायक अंग थे क्षमा, दया, करुणा, मैत्री आदि । धर्माचरण की शुद्धतावश मांसभक्षण का भारत के सव वर्णों ने प्रायः स्याग किया है। विश्व के किसी भी देश में इतने लम्बे काल तक अहिंसा सिद्धान्त का पालन नहीं हुआ है, जैसा कि भारतभू पर देखा गया है। अहसाव्रत - इस व्रत में एक वर्ष के लिए मांसभक्षण निषिद्ध है, तदुपरान्त एक गौ तथा सुवर्ण मृग के दान का विधान है । यह संवत्सर व्रत है । दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत खण्ड ४४४: हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.८६५ ।
अहिंस्र - अवध्य, जो मारने के योग्य नहीं है । वैदिक साहित्य में गौ (गाय) के लिए इस शब्द का तथा 'अच्या' शब्द का बहुत प्रयोग हुआ है।
अहिच्छत्र ( रामनगर ) - ( १ ) अर्जुन द्वारा जीता गया एक देश, जो उन्होंने द्रोणाचार्य को भेंट कर दिया था। एक नगर उक्त देश की बनी शक्कर; छत्राक पौधा एक प्रकार
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का मोती ।
(२) उत्तर रेलवे के आंवला स्टेशन से छ: मील रामनगर तक पैदल या बैलगाड़ी से जाना पड़ता है, यहाँ पार्श्वनाथजी पधारे थे । जब वे ध्यानस्थ थे तब धरणेन्द्र तथा पद्मावती नामक नागों ने उनके मस्तक पर अपने फणों से छत्र लगाया था यहाँ की खुदाई में प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकली हैं । यहाँ जैन मन्दिर है तथा कार्तिक में मेला लगता है।
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अहिच्छत्रा - एक प्राचीन नगरी, इसके अवशेष उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में पाये जाते हैं । ज्योतिषतत्त्व में कथन है : "केशव, आनर्तपुर, पाटलिपुत्र, अहिच्छत्रा पुरी, दिति, अदिति इनका क्षौर के समय स्मरण करने से कल्याण होता है ।" इससे इस पुरी का धार्मिक महत्त्व प्रकट है । दे० अहिच्छत्र । अहिर्बुध्न्य — निकटवर्ती आकाश का यह एक सर्प कहा गया है । ऋग्वेदोक्त देवता प्रकृति के विविध उपादानों के प्रतिरूप एवं उनके कार्यों के संचालक माने गये हैं। आकाशीय विद्युत् एवं झंझावात के नियंत्रण के लिए एवं उनके प्रतीकस्वरूप जिन देवों की कल्पना की गयी है उनमें इन्द्र, त्रित आप्त्य, अपांनपात् मातरिश्वा अहिर्बुध्न्य, अज-एक-पाद, रुद्र एवं मरुतों का नाम आता है । विद्युत् के विविध नामों एवं झंझा के विविध देशों का इन नामों के माध्यम से बड़ा ही सुन्दर चित्रण हुआ है। विद्युत् जो आकाशीय गौओं की मुक्ति के लिए योद्धा का रूप धारण करती है उसे 'इन्द्र' कहते हैं । यही तृतीय या वायवीय अग्नि है, अतएव इसे 'त्रित आप्त्य' कहते हैं । आकाशीय जल से यह उत्पन्न होती है, अतएव इसे 'अपांनपात्' कहते हैं । यह मेघमाता से उत्पन्न हो पृथ्वी पर अग्नि लाती है, अतएव मातरिश्वा एवं पृथ्वी की ओर तेजी से चलने के समय इसका रूप सर्पाकार होता है इसलिए इसे अहिर्बुधन्य कहते हैं । अहिर्बुध्न्यस्नान - हेमाद्रि, व्रत खण्ड, पृष्ठ ६५४-६५५ ( विष्णुधर्मोत्तर पुराण से उद्धृत ) के अनुसार जिस दिन उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र हो, उस दिन दो कलशों के जल से स्नान किया जाय, जिसमें उदुम्बर ( गूलर ) वृक्ष की पत्तियाँ, पञ्चगव्य (गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोमूत्र तथा गोमय ), कुश तथा घिसा हुआ चन्दन भी मिला हो । अहिर्बुध्न्य के पूजन के साथ सूर्य, वरुण, चन्द्र, रुद्र तथा
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