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वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमारामः पूतं मित्यभिधीयते ॥ [ अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदों के आदेशों का पालन, आतिथ्य वैश्वदेव (आदि) इष्ट कहलाते हैं । वापी, कूप, तडाग, धर्मशाला, पाठशाला, देवालयों का निर्माण, अन्न का दान, आराम ( बाटिका आदि का लगवाना ) को पूर्त कहा जाता है । ]
इष्टिका आजकल की 'ईट' । वास्तव में यह यज्ञ (इष्टि ) वेदी के चयन (चुनाव) में काम आती थी, अतः इसका नाम इष्टिका पड़ गया। बाद में इससे गृहनिर्माण भी होने लगा । चाणक्य ने इष्टिकानिर्मित भवन का गुण इस प्रकार बतलाया है :
कूपोदकं वच्छाया श्यामा स्त्री इष्टिकालयम् । शीतकाले भवेदुष्णमुष्णकाले तु शीतलम् ॥
ईंटों से निर्मित स्थान में पितृकर्म का निषेध है । श्राद्धतत्त्व में उद्धृत शङ्खलिखित | इष्टिका ( ईंट ) द्वारा देवालयों के निर्माण का महाफल बतलाया गया है
मृग्मयारकोटिगुणितं फलं स्वाद्वामभिः कृते । कोटिकोटिगुणं पुण्यं फलं स्यादिष्टिकामये ॥ द्विपराधं गुणं पुण्यं शैलजे तु विदुर्बुधाः ॥ ( प्रतिष्ठातत्त्व ) इहामुत्र - फलभोगविराग - 'इह' इस संसार को और 'अमुत्र' ( वहाँ ) स्वर्ग को कहते हैं। सांसारिक भोग तथा स्वर्ग के भोग दोनों मोक्षार्थी के लिए स्याज्य है। दे० वेदान्त
सार ।
ई ई-स्वरवर्ण का चतुर्थ अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है :
ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली ब्रह्मविष्णुमयं वर्ण तथा रुद्रमयं सदा ॥ पञ्चदेवमयं वर्ण पीतविच, हलताकृतिम् । चतुर्ज्ञानमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा ॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम निम्नलिखित हैं : ईस्त्रमूर्तिर्महामाया लोलाक्षी वामलोचनम् । गोविन्दः शेखरः पुष्टिः सुभद्रा रत्नसंज्ञकः ॥ विष्णुलक्ष्मीः प्रहासदेव वाग्विद्धः परात्परः । कालोत्तरीयो भेरुण्डा रतिश्च पौण्ड्रवर्द्धनः ॥
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इष्टिका - ईश्वर
शिवोत्तमः शिवा तुष्टिचतुर्थी विन्दुमालिनी । वैष्णवी वैन्दवी जिह्वा कामकला सनादका ॥ पावक: कोटर: कीर्तिर्मोहिनी कालकारिका । कुचन्द्र तर्जनी च शान्तिस्त्रिपुरसुन्दरी ॥ [ हे देवि ! ईकार ( 'ई' अक्षर ) स्वयं परम कुण्डली है । यह वर्ण ब्रह्मा और विष्णुमय है । यह सदा रुद्रमय है । यह वर्ण पञ्चदेवमय है । पीली बिजली की रेखा के समान इसकी प्रकृति है । यह वर्ण चतुर्ज्ञानमय तथा सर्वदा पञ्चप्राणमय है । ]
ई - कामदेव का एक पर्याय । दे० 'कामदेव | ईति - कृषि के छः प्रकार के उपद्रव, यथा
अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिकाः खगाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ॥
(मनुस्मृति)
[ अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी) मूषक, पक्षी, प्रत्यासन्न ( आक्रमणकारी) राजा मे छः प्रकार की ईवियों कही गयी हैं । ]
ये बाहरी भय हैं, जबकि 'भीति' आन्तरिक भय है । महाभारत आदि ग्रन्थों में ( और स्मृतियों में भी ) इस बात का उल्लेख है। बाहरी भयों के लिए अधार्मिक राजा ही उत्तरदायी है । धार्मिक राज्य में ईतियाँ नहीं होतीं । 'निरातङ्का निरीतयः ।' ( रघुवंश, १.६३) । ईश्वर - सर्वोच्च शक्तिमान् सर्वसमर्थ विश्वाधिष्ठाता स्वामी; परमात्मा । वेदान्त की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, अज्ञानोपहित चैतन्य को ईश्वर कहते हैं । यह अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है; अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है । अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टि का कर्ता और नियामक है, भकों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष (पुरुषोत्तम) अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप से पूजित होता है। वहीं देवाधिदेव है और समस्त देवता उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं । संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्य उसी के नियन्त्रण में होते हैं परन्तु जगत् में वह चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अन्ततोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है । अपनी योगमाया से युक्त होकर ईश्वर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म अपना फल स्वयं उत्पन्न करते हैं ।
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