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इन्द्रपौर्णमासी-इन्द्रोतदैवापशोनक
प्रस्थ (दिल्ली) का धार्मिक स्वरूप बाद में तुर्को ने पूर्णतः वराह से, देवी व ईशानी का शिव से सम्बन्ध स्थापित है। नष्ट कर दिया।
इस प्रकार इन्द्राणी अष्टमातृकाओं में से भी एक है। इन्द्रपौर्णमासी हेमाद्रि, बतखण्ड २.१९६ में इसका उल्लेख
अमरकोश में सप्त मातृकाओं का (ब्राह्मीत्याद्याऽस्तु है। भाद्रपद मास की पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए।
मातरः) उल्लेख है : इसके पश्चात् तीस सपत्नीक सद्गृहस्थों को अलंकारों से ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा । सम्मानित करना चाहिए । इस व्रत के आचरण से मोक्ष वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमातरः ।। की प्राप्ति होती है।
इन्द्रियाँ-पूर्वजन्म के किये हए कर्मों के अनुसार शरीर इन्द्रव्रत-साठ संवत्सर व्रतों में से सैंतालीसवाँ व्रत । कृत्य
उत्पन्न होता है । पञ्चभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कल्पतरु के व्रत काण्ड, पृष्ठ ४४९ पर इस व्रत का उल्लेख
कही गयी है । घ्राणेन्द्रिय से गन्ध का ग्रहण होता है, है। व्रती को चाहिए कि वह वर्षा ऋतु में खुले आकाश
इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है, के नीचे शयन करे । अन्त में दूधवाली गौ का दान
क्यों कि रस जल का गुण है। चक्षु इन्द्रिय तेज से बनी है,
क्योंकि रूप तेज का गण है । त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि करे।
स्पर्श वायु का गुण है । श्रोत्र इन्द्रिय आकाश से बनी है, इन्द्रव्याकरण-छहों अङ्गों में व्याकरण वेद का प्रधान अङ्ग
क्योंकि शब्द आकाश का गुण है । समझा जाता है। जो लोग वेदमन्त्रों को अनादि मानते हैं
बौद्धों के मत में शरीर में जो गोलक देखे जाते हैं उनके अनुसार तो बीजरूप से व्याकरण भी अनादि है।
उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे आँख की पुतली जीभ पतञ्जलि वाली जनश्रुति से पता चलता है कि सबसे पुराने
इत्यादि)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अङ्ग दिखाई वैयाकरण देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं और इन्द्र की
पड़ते हैं वे इन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं गणना उनके बाद होती है। एक प्राचीन पद्य "इन्द्रश्चन्द्रः
हैं । इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। काशकृत्स्नः......."जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः" के अनुसार
कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं । न्याय में उनके पाणिनिपूर्व काल में इन्द्रव्याकरण प्रचलित रहा होगा।
मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया इन्द्रसावणि-चौदहवें मनु का नाम इस मन्वन्तर में बृहद्- गया है। सांख्य में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और भानु का अवतार होगा, शुचि इन्द्र होंगे, पवित्र चाक्षुष मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गयी है। न्याय में आदि देवता होंगे, अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध, मागध आदि कर्मेन्द्रियाँ नहीं मानी गयी हैं, पर मन एक आन्तरिक सप्तर्षि होंगे । भागवत पुराण, विष्णु पुराण (२।३) एवं करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न मार्कण्डेय पुराण (अध्याय १००) में यह वर्णन पाया होकर व्यापक होता तो युगपत् कई प्रकार का ज्ञान जाता है।
सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रियों का एक क्षण में एक इन्द्राणी-इन्द्र की पत्नी, जो प्रायः शची अथवा पौलोमी
साथ संयोग होते हुए उन सबके विषयों का एक साथ भी कही गयी है। यह असुर पुलोमा की पुत्री थी,
ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते । गन्ध, जिसका वध इन्द्र ने किया था। शाक्त मत में सर्वप्रथम
रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ मातृका पूजा होती है। ये माताएँ विश्वजननी हैं, या विषय हैं । जिनका देवस्त्रियों के रूप में मानवीकरण हुआ है । इसका इन्द्रोत-ऋग्वेद (८.६८) की एक दानस्तुति में दाता के दूसरा अभिप्राय शक्ति के विविध रूपों से भी हो सकता रूप में इन्द्रोत का दो बार उल्लेख हुआ है । द्वितोय मण्डल है, जो आठ है, तथा विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित है। में उसका एक नाम आतिथिग्व है जिससे प्रकट होता है 'वैष्णवी व लक्ष्मी का विष्णु से, ब्राह्मी या ब्रह्माणी का कि यह अतिथिग्व का पुत्र था। ब्रह्मा से. कार्तिकेयी का युद्धदेवता कार्तिकेय से, इन्द्राणी इन्द्रोतदैवापशौनक-इस ऋषि का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण का इन्द्र से, यमी का मृत्यु के देवता यमसे, वाराही का (१३:५,३,५,४,१) में जनमेजय के अश्वमेध यज्ञ के
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