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आरोग्यप्रतिपदा-आर्तभक्ति
जोडा, सूवर्ण तथा एक तरल पदार्थ से भरा हआ कलश दान करना चाहिए । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.३८९-९१ (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, २.५८ से उद्धृत)। आरोग्यप्रतिपदा-वर्ष की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि
को व्रतारम्भ होता है। यह एक वर्षपर्यन्त चलता है । प्रत्येक प्रतिपदा को सूर्य की छपी हुई प्रतिमा का पूजन विहित है । दान पूर्व व्रत के समान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.३४१-४२; व्रतराज, ५३ । आरोग्यवत-(१) इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ल पक्ष के पश्चात् आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर शरद्पूर्णिमा तक होता है । दिन में कमल तथा जाति-जाति के पष्पों से अनिरुद्ध की पूजा, हवन आदि होता है । व्रत की समाप्ति से पूर्व तीन दिन का उपवास विहित है। इससे स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा समृद्धि की उपलब्धि होती है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.२०५,१-७ ।
(२) यह दशमीव्रत है। नवमी को उपवास तथा दशमी को लक्ष्मी और हरि का पूजन होना चाहिए । हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.९६३-९६५ । आरोग्यसप्तमी-इस व्रत में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी से प्रत्येक सप्तमी को एक वर्ष तक उपवास, सूर्य के पूजन
आदि का विधान है । दे० वाराह पुराण, ६२.१-५ । आचिक (१) सामवेदीय मन्त्रों की स्तुतियों का संग्रह, जो
उद्गाता को कण्ठस्थ करना पड़ता था। सोमयज्ञ के विविध अवसरों पर कौन मन्त्र किस स्वर में और किस क्रम में गाया जायगा, आदि की शिक्षा आचार्य अपने शिष्यों को देते थे। 'कौथुमी शाखा' में उद्गाता को ५८५ गान सिखाये जाते थे। इस पूरे संग्रह को आर्थिक कहते हैं । इसमें दो प्रकार के गान होते हैं-पहला 'ग्रामगेय गान' तथा दूसरा 'आरण्य गान' । पहला बस्तियों में गाया जाता था, किन्तु दूसरा इतना पवित्र माना जाता था कि उसके लिए केवल वनस्थली का एकान्त ही उपयुक्त समझा जाता था। आचिक (२) सामवेद में आये हुए ऋग्वेद के मन्त्र 'आर्चिक' कहे जाते हैं और यजुर्वेद के मन्त्र ( गद्यात्मक ) 'स्तोम' कहलाते हैं। सामवेदीय आचिक ग्रन्थ अध्यापक भेद, देश भेद, कालक्रम भेद, पाठक्रम भेद और उच्चारण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं । सब शाखाओं में मन्त्र एक से ही हैं, उनकी संख्या में व्यतिक्रम है।
प्रत्येक शाखा के श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य भिन्नभिन्न हैं। आचिक ग्रन्थ तीन है-छन्द, आरण्यक और उत्तरा । उत्तराचिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इन सूक्तों का 'त्रि' नाम है । इसी के समान भावापन्न दो दो ऋचाओं की समष्टि का नाम 'प्रगाथ' है। चाहे त्रिक हो या प्रगाथ, इनमें से प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द आचिक में से लिया गया है । इसी छन्द-आचिक से एक ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं को मिलाकर त्रिक बनता है। इसी प्रकार प्रगाथ भी हैं। इन्हीं कारणों से इनमें जो पहली ऋचाएं हैं वे सब 'योनि-ऋक्' कहलाती हैं और आचिक योनि-ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
योनि-ऋक् के पश्चात् उसी के बराबर की दो या एक ऋचा जिसके उत्तर दल में मिले उसी का नाम उत्तराचिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तरा है।
एक ही अध्याय का बना हआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन करने के योग्य हो 'आरण्यक' कहलाता है। सब वेदों में एक-एक आरण्यक है । योनि, उत्तरा और आरण्यक इन्हीं तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आचिक अर्थात् ऋक्समूह है । छन्द ग्रन्थों में जितने साम हैं उनके गाने वाले 'छन्दोग' कहलाते हैं। आर्त भक्ति-श्रीमद्भगवद्गीता (७.१६) में भक्तों के चार प्रकार बतलाये गये हैं :
१. अर्थार्थी ( अर्थ अथवा लाभ की आशा से भजन करने वाला)
२. आर्त ( दुःख निवारण के लिए भजन करने वाला)
३. जिज्ञासु ( भगवान् के स्वरूप को जानने के लिए भजन करने वाला)
४. ज्ञानी (भगवान् के स्वरूप को जानकर उनका चिन्तन करने वाला )।
यद्यपि आर्त भक्ति का स्थान अन्य प्रकार की भक्ति से निचली श्रेणी का है, तथापि आर्त भक्त को भी भगवान् सुकृती कहते हैं। आर्त होकर भी भगवान् की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है। भक्तिशास्त्र के सिद्धांतग्रन्थों में भक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है-(१) परा भक्ति (जिसका उद्देश्य केवल भक्ति है और उसके बदले में कल
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