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आसुरि-आहवनीय
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किसी प्रकार का भी प्रतिग्रह निन्दनीय है। इसलिए जब कन्यादान का यज्ञ के रूप में महत्व बढ़ा तो आसुर विवाह कन्याविक्रय के समान दुषित समझा जाने लगा। अन्य अप्रशस्त विवाहों की तरह केवल गणना के लिए इसका उल्लेख होता है । दे० 'विवाह' ।
(२) श्रीमद्भगवद्गीता (अ० १६) में समस्त जीवधारी (भूतसर्ग) दो भागों में विभक्त हैं। वे हैं दैव और आसुर । आसुर का वर्णन इस प्रकार किया गया है : द्वौ भूतसौं लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च । देवो विस्तरशः प्रोक्तः आसुरं पार्थ मे शृणु । प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसम्भूतं किमन्त्यत्कामहेतुकम् ।। एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्यबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।। आदि आसूरि-बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रथम दो वंशों (आचार्यों की तालिका) में भरद्वाज के शिष्य एवं औपवनि के आचार्य रूप में इनका उल्लेख है, किन्तु तीसरे में याज्ञवल्क्य के शिष्य तथा आसुरायण के आचार्य रूप में उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के प्रथम चार अध्यायों में याज्ञिक अधिकारी एवं सत्य पर अटल रहने वाले पुरुषों का उल्लेख हुआ है, जिनमें इनकी गणना है ।
सांख्यशास्त्र के आचार्य, कपिल के शिष्य भी आसूरि
(२) साधारण अर्थ में आस्तिक वह है जो ईश्वर और परमार्थ में विश्वास रखता है। आस्तिकदर्शन-वेदोक्त प्रमाणों को मानने वाले आस्तिक एवं न मानने वाले नास्तिक दर्शन कहलाते हैं । चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं अर्हत् ये छः नास्तिक दर्शन हैं : तथा वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त ये छ: आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। आस्तिकवर्ग-दर्शनों में छः आस्तिक तथा छः नास्तिक गिने जाते हैं । हिन्दू साहित्य इन नास्तिक दर्शनों को भी अपना अङ्ग समझता है। विपरीतमतसहिष्णु भारतवर्ष में आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह के विचारों का अनादि काल से विकास होता चला आया है। भारतीय उदारता के अंक में आस्तिक एवं नास्तिक दोनों वर्गों की परम्परा और संस्कृति समान सुरक्षित बनी रही है । आस्तिक वर्ग का अर्थ है आस्तिक दर्शनों का अनुयायी। आस्तीकपर्व-महाभारत के 'आस्तीकपर्व' में गरुड और सी की उत्पत्ति का वर्णन है । समुद्रमन्थन, उच्चैःश्रवा की उत्पत्ति और महाराज परीक्षित् के पुत्र जनमेजय के सर्पानुष्ठान का वर्णन भी किया गया है। भरतवंशीय महात्माओं के पराक्रम का वृत्तान्त भी इसमें वर्णित है।
जरत्कारु ऋषि के पुत्र आस्तीक की इस पर्व में अधिक प्रधानता होने के कारण यह 'आस्तीक पर्व' कहा गया है। इनके नाम पर सर्प को भगाने का यह श्लोक प्रचलित है :
सपसर्प भद्रं ते दूरं गच्छ वनान्तरम् ।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर ।। आहवनीय-यज्ञोपयोगी एक अग्नि । धार्मिक यज्ञ कार्यों में यज्ञवेदी का बड़ा महत्त्व है। यह वेदी कुश से आच्छादित ऊँचे चबूतरे की होती थी, जो यज्ञसामग्री देने अथवा यज्ञ सन्बन्धी पात्रों के रखने के लिए बनायी जाती थी। मुख्य अग्निवेदी कुण्ड के समान विभिन्न आकार की होती थी, जिसमें यज्ञाग्नि रखी रहती थी। प्राचीन भारत में जब देवों की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अपने घर के अग्निस्थान में करता था, उसका यह पुनीत कर्तव्य होता था कि पवित्र अग्नि वेदी में स्थापित रखे रहे। यह कार्य प्रत्येक गृहस्थ अग्न्याधान या यज्ञाग्नि के आरम्भिक उत्सवदिन से ही प्रारम्भ करता था। इस अवसर पर यज्ञकर्ता
पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् । प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ।
(भागवत, १.३.१०) आस्तिक-(१) वेद के प्रामाण्य (और वर्णाश्रम व्यवस्था) में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। आस्तिक के लिए ईश्वर में विश्वास रखना अनिवार्य नहीं है किन्तु वेद में विश्वास रखना आवश्यक है। सांख्य और पूर्व- मीमांसा दर्शन के अनुयायी ईश्वर की आवश्यकता सृष्टिप्रक्रिया में नहीं मानते, फिर भी वे आस्तिक हैं। शङ्कराचार्य ने आस्तिक्य की परिभाषा इस प्रकार की है :
"आस्तिक्यं श्रद्धानता परमार्थेष्वागमेषु ।" [परमार्थ (मोक्ष) और आगम (वेद) में श्रद्धा रखना आस्तिक्य है। ]
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