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आर्य समाज
प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, अक्तूबर सन् १८८३ में अजमेर में इनकी इहलीला जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने समाप्त हुई । कहा जाता है कि रसोइए ने इनको विष दे इन्हें वेद पढ़ाया। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद दिया। उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं आर्यसमाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैंचाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान १. सभी सत्य ज्ञान का प्रारम्भिक कारण ईश्वर है । की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम २. ईश्वर ही सर्वस्व सत्य है, सर्वज्ञान है, सर्व सौन्दर्य पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के है, अशरीरी है, सर्व शक्तिमान् है, न्यायकारी है, दयालु पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक
है, अजन्मा है, अनन्त है, अपरिवर्तनशील है, अनादि है, पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का
अतुलनीय है, सबका पालनकर्ता एवं सबका स्वामी है, परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्श- सर्वव्याप्त है, सर्वज्ञ है, अजर व अमर है, भयरहित है, निक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से
पवित्र है एवं सृष्टि का कारण है । केवल उसी की पूजा वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष
होनी चाहिए। इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण
३. वेद ही सच्चे ज्ञानग्रन्थ है तथा प्रत्येक आर्य में बम्बई से पूना, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक
का सबसे पुनीत कर्तव्य है उन्हें पढ़ना या सुनना एवं इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दी। पण्डितों, मौल
उनकी शिक्षा दूसरों को देना। वियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी
४. प्रत्येक प्राणी को सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था । इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य
के त्याग के लिए सर्वदा तत्पर रहना चाहिए । भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गङ्गा
५. प्रत्येक काम नेकीपूर्ण होना चाहिए तथा उचित तट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये । ढाई
एवं अनुचित के चिन्तन के बाद ही उसे करना चाहिए। वर्ष के बाद पुनः जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।
६. आर्यसमाज का प्राथमिक कर्तव्य है मनुष्य मात्र की १० अप्रैल सन् १८७५ में बम्बई में इन्होंने आर्यसमाज शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति द्वारा विश्वकी स्थापना की। १८७७ में दिल्ली दरबार के अवसर
कल्याण करना । पर दिल्ली जाकर पंजाब के कुछ भद्रजनों से भी मिले, जिन्होंने इन्हें पंजाब आने का निमन्त्रण दिया। यह उनकी
७. हर एक के प्रति न्याय, प्रेम एवं उसकी योग्यता के पंजाब की पहली यात्रा थी, जहाँ इनका मत भविष्य में
अनुसार व्यवहार करना चाहिए । खूब फूला-फला । १८७८-१८८१ के मध्य आर्यसमाज एवं
८. अन्धकार को दूर कर ज्ञान ज्योति को फैलाना थियोसॉफिकल सोसाइटी का बड़ा ही सुन्दर भाईचारा
चाहिए। र । । किन्तु शीघ्र ही दोनों में ईश्वर के व्यक्तित्व के ऊपर
९. किसी को भी केवल अपनी ही भलाई से सन्तुष्ट मतभेद हो गया।
नहीं होना चाहिए अपितु अपनी उन्नति का सम्बन्ध दूसरों __स्वामी दयानन्द भारत के अन्य धार्मिक चिन्तकों, की उन्नति से जोड़ना चाहिए । जैसे देवेन्द्रनाथ ठाकूर, केशवचन्द्र सेन ( ब्रह्मसमाज ), १०. साधारण समाजोन्नति या समाज कल्याण के मैडम ब्लौवाट्स्की एवं कर्नल आलकॉट ( थियोसॉफिकल सम्बन्ध में मनुष्य को अपना मतान्तर त्यागना तथा अपनी सोसाइटी ), भोलानाथ साराभाई ( प्रार्थनासमाज), सर व्यक्तिगत बातों को भी छोड़ देना चाहिए। किन्तु व्यक्तिसैयद (रिफाई इस्लाम ) एवं डॉ० टी० जे० स्काट गत विश्वासों में मनुष्य को स्वतन्त्रता बरतनी चाहिए । तथा रे० जे० ग्रे (ईसाई प्रतिनिधि) से भी मिले । जीवन ऊपर के दस सिद्धान्तों में से प्रथम तीन जो ईश्वर के के अन्तिम दिनों में स्वामीजी राजस्थान में थे। आपने अस्तित्व, स्वभाव तथा वैदिक साहित्य के सिद्धान्त को महाराज जोधपुर तथा अन्य राजाओं पर अच्छा प्रभाव दर्शाते हैं, धार्मिक सिद्धान्त हैं। अन्तिम सात नैतिक डाला । कुछ दिनों बाद स्वामीजी बीमार पड़े एवं ३० सिद्धांत है । आर्य समाज का धर्मविज्ञान वेद के ऊपर
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