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आदित्यउपपुराण-आदित्यशयन
अनुपयुक्त समझा एवं उन्होंने 'खड्ग-दी-पहल' (खड्ग- रायण का रविवार); 'विजय' (श० ७ को रोहिणी के संस्कार) के द्वारा 'खालसा' दल बनाया, जो धार्मिक जीवन साथ रविवार); 'पुत्रद' (रोहिणी या हस्त के साथ रविवार, के साथ तलवार का व्यवहार करने में भी कुशल हुआ। उपवास एवं पिण्डों के साथ श्राद्ध हेतु); 'आदित्याभिमुख' गुरु गोविन्दसिंह के बाद सिक्ख 'आदिग्रन्थ' को ही गुरु (माघ कृ० ७ को रविवार, एकभक्त, प्रातः से सायं तक मानने लगे और यह 'गुरु ग्रन्थ साहब' कहलाने लगा। महाश्वेता मंत्र का जप हेतु); 'हृदय' (संक्रान्ति के साथ आदित्य उपपुराण-अठारह महापराणों की तरह ही कम से
रविवार, नक्त, सूर्यमन्दिर में सूर्याभिमुख होना, आदित्यकम उन्नीस उपपुराण भी प्रसिद्ध है । प्रत्येक उपपुराण हृदय मन्त्र का १०८ बार जप); 'रोगपा' (पूर्वाफाल्गुनी किसी न किसी महापुराण से निकला हुआ माना जाता को रविवार, अर्क के दोने में एकत्र किये हुए अर्कफूलों से है । बहुतों का मत है कि उपपुराण बाद की रचनाएँ हैं, पूजा); 'महाश्वेताप्रिय' (रविवार एवं सूर्य ग्रहण, उपवास, परन्तु अनेक उपपुराणों से यह प्रकट होता है कि वे अति- महाश्वेता का जप) । महाश्वेता मन्त्र है-'ह्रां ह्रीं सः' प्राचीन काल में संग्रहीत हुए होंगे। 'आदित्य उपपुराण' इति, दे० हे. (वत २, ५२१)। अन्तिम दस के लिए एक प्राचीन रचना है, जिसका उद्धरण अल-बीरूनी दे० कृत्यकल्पतरु (व्रत १२-२३), हे० (व० २,५२४-२८)। (सखाऊ, १.१३०), मध्व के ग्रन्थों एवं वेदान्तसूत्र के आदित्यवार नक्तव्रत-हस्त नक्षत्र से युक्त रविवार को भाष्यों में प्राप्त होता है।
इस व्रत का आचरण होता है, यह रात्रि अथवा वार व्रत आदित्यदर्शन-अन्नप्राशन संस्कार के पश्चात् शिशु का है, जिसका देवता सूर्य है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान 'निष्क्रमण' (पहली बार घर से निकालना) संस्कार होता होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.५३८-५४१; कृत्यहै। इसी संस्कार का अन्य नाम आदित्यदर्शन भी है, रत्नाकर, पृ० ६०८-६१० । क्योंकि सर्य का दर्शन बालक उस दिन पहली ही बार
___ आदित्यवारव्रत-इसमें मार्गशीर्ष मास से एक वर्षपर्यन्त me_
e : करता है । दे० 'निष्क्रमण' ।
सूर्य का पूजन होता है । भिन्न-भिन्न मासों में सूर्य का आदित्यमण्डलविधि-इस व्रत में रक्त चन्दन अथवा केसर
भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण करते हुए भिन्न-भिन्न फल से बनाये हुए वृत्त पर गेहूँ अथवा जौ के आटे का घी-गुड़ अर्पित किये जाते हैं। जैसे, मार्गशीर्ष में सूर्य का नाम से संयुक्त खाद्य पदार्थ रखा जाता है । लाल फूलों से सूर्य होगा 'मित्र' और उन्हें नारिकेल अर्पित किया जायगा। का पूजन होता है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, ७५३, ७५४ पौष में 'विष्णु' नाम से सम्बोधित होंगे तथा 'बीजपूर'फल (भविष्योत्तर पुराण ४४.१-९ से उद्धृत)।
अर्पित किया जायगा। इसी प्रकार अन्य मासों में भी । आदित्यवार-सूर्य के व्रत का दिन । जब यह कुछ तिथियों,
दे० व्रतार्क, पत्रात्मक (३७५ ब -३७७ अ)। इस व्रत के नक्षत्रों एवं मासों से युक्त होता है तो इसके कई नाम (कल पुण्य से समस्त रोगों का निवारण होता है । १२) होते हैं । माघ शु०६ को यह 'नन्द' कहलाता है, आदित्यवत-पुरुषों और महिलाओं के लिए आश्विन मास जब व्यक्ति केवल रात्रि में खाता है (नक्त), सूर्य प्रतिमा से प्रारम्भ कर एक वर्ष तक रविवार को यह व्रत चलता पर घी से लेप करता है और अगस्ति वृक्ष के फल, श्वेत है। सूर्य देवता का पूजन होता है। व्रतार्क (पत्रात्मक, चन्दन, गुग्गुल धूप एवं अपूप (पूआ) का नैवेद्य चढ़ाता है पृ० ३७८ अ) में स्कन्द पुराण से एक कथा लेकर इस (हे०, ७० २, ५२२-२३) । भाद्रपद शुक्ल में यह रविवार बात का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार साम्ब 'भद्र' कहलाता है, उस दिन उपवास या केवल रात्रि में श्री कृष्ण के शाप से कोढ़ी हो गया था और अन्त में इसी भोजन किया जाता है, दोपहर को मालतीपुष्प, चन्दन एवं व्रत के आचरण से पूर्णरूप से स्वस्थ हुआ। विजयधूप चढ़ायी जाती है, (हे०, ७०, २, ५२३-२४); आदित्यस्तव-अप्पय दीक्षित कृत शैव मत का एक ग्रन्थ । कृत्यकल्पतरु (व ०१२-१३) । रोहिणी नक्षत्र से युक्त रविवार इसके अनुसार सूर्य के माध्यम से अन्तर्यामी शिव का ही 'सौम्य' कहलाता है। अन्य नाम हैं 'कामद' (मार्गशीर्ष जप किया जाता है। श० ६); 'जय' (दक्षिणायन का रविवार); 'जयन्त' (उत्त- आदित्यशयन-हस्त नक्षत्र युक्त रविवासरीय सप्तमी, अथवा
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