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गर्दनों में बांधना चाहिए। दे० नीलमत पुराण, पृष्ठ ७७, पद्य ९४३-९४७ ।
अश्वपूजा - आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दे० 'आश्विन' ।
अश्वमुख - घोड़े के समान मुख वाला, किन्नर ( स्त्री अश्वमुखी, किन्नरी) । किम्पुरुष इसका एक अन्य पर्याय है । अश्वमेध वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मन्त्र हैं । शतपथ ब्राह्मण ( १३.१-५) में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.८०९), कात्यायनीय श्रौतसूत्र ( २० ), आपस्तम्ब (२०), आश्वलायन ( १०.६), शांखायन (१६) तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इसका वर्णन प्राप्त होता है महाभारत (१०.७१.१४) में महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् पाप मोचनार्थ किये गये अश्वमेध यज्ञ का विशद वर्णन है । अश्वमेध मुख्यतः राजनीतिक यज्ञ था और इसे वही सम्राट् कर सकता था, जिसका आधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे । आपस्तम्ब ने लिखा है 'राजा सार्वभौमः अश्वमेधेन यजेत् । नाप्यसार्वभौम:' [ सार्वभौम राजा अश्वमेध यज्ञ करे असार्वभौम कदापि नहीं | ] यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का योतक होता था। दिग्वि जय-यात्रा के पश्चात् साफल्यमण्डित होने पर इस यज्ञ का अनुष्ठान होता था । ऐतरेय ब्राह्मण (८.२० ) इस यज्ञ के करनेवाले महाराजों की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात् पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट् का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा । जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्ष आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रौत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया ।
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यज्ञ का प्रारम्भ वसन्त अथवा ग्रीष्म ऋतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्रायः एक वर्ष का समय लगता था । सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व चुना जाता था। यह शुद्ध जाति का मूल्यवान् एवं विशिष्ट चिह्नों से युक्त होता था । यज्ञ स्तम्भ में बांधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान
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अश्वपूजा - अश्वमेघ कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ों के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात् इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी । इसके सिर पर जयपत्र बाँधकर छोड़ा जाता था एक सौ राजकुमार, एक सौ राजसभासद, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिए सशस्त्र पीछे-पीछे प्रस्थान करते थे । इसके स्वतन्त्र विचरण में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने देते थे। इस अश्व के चुराने या इसे रोकने वाले नरेश से युद्ध होता था । यदि यह अश्व खो जाता तो दूसरे अश्व से यह क्रिया आरम्भ से पुनः की जाती थी।
जब यह अश्व दिग्विजय यात्रा पर जाता था तो स्थानीय लोग इसके पुनरागमन की प्रतीक्षा करते थे। मध्यकाल में अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये जाते थे । सवितृदेव को नित्य उपहार दिया जाता था। राजा के सम्मुख पुरोहित उत्सव के मध्य मन्त्रगान करता था । इस मन्त्रगान का चक्र प्रत्येक ग्यारहवें दिन दुहराया जाता था। इसमें गान, वंशीवादन तथा वेद के विशेष अध्यायों का पाठ होता था । इस अवसर पर राजकवि राजा की प्रशंसा में रचित गीतों को सुनाता था । मन्त्रगान नाटक के रूप में विविध प्रकार के पात्रों, वृद्ध, नवयुवक, सँपेरों, टाकू, मछुवा, आखेटक एवं ऋषियों के माध्यम से प्रस्तुत होता था। जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था ।
वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशुयज्ञ होते थे एवं सोमरस भी निचोड़ा जाता था । दूसरे दिन यज्ञ का अश्व स्वर्णाभरण से सुसज्जित कर, तीन अन्य अश्वों के साथ एक रथ में नाधा जाता था और उसे चारों ओर घुमाकर फिर स्नान कराते थे। फिर वह राजा की तीन प्रमुख 'रानियों द्वारा अभिषिक्त एवं सुसज्जित किया जाता था, जब कि होता एवं प्रमुख पुरोहित ब्रह्मोद्य करते थे । पुनः अश्व एक बकरे के साथ यज्ञस्तम्भ में बाँध दिया जाता था। दूसरे पशु जो सैकड़ों की संख्या में होते थे, बलि के लिए स्तम्भों में बाँधे जाते थे कपड़ों से ढककर इनका श्वास फुलाया जाता था । पुनः मुख्य रानी अश्व के साथ वस्त्रावरण के भीतर प्रतीकात्मक रूप से लेटती थी । पुरोहितादि ब्राह्मण महिलाओं के साथ प्रमोदपूर्वक प्रश्नो तर करते थे (वाजसनेयी संहिता २३, २२) । ज्यों ही मुख्य
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